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"गौ को हत्या करने वाले, उसका माँस खाने वाले तथा गौ हत्या का अनुमोदन करने वाले लोग गौ के शरीर में जितने रोएँ होते हैं उतने वर्षों तक नरक में डूबे रहते हैं ।" १
अत: उपयोगिता एवं धार्मिकता किसी भी दृष्टि से पशु वध को उचित नहीं कहा जा सकता । पशु उपयोगिता के कारण ही आज पाकिस्तान में गौवध पर पूर्ण प्रतिबंध है क्योंकि वहाँ कृषि के लिये बैल नहीं मिलते थे । परतन्त्र भारत में मुसलमानी शासक होते हुए भी अकबर ने अपने राज्यकाल में वर्ष में छ: महीने के लिये पशु वध एवं गौ-वंध पर पूर्ण नियंत्रण लगा दिया था । केवल नियंत्रण ही क्यों उसके वधिक के लिये प्राण दंड का विधान था । प्रमाण स्वरूप आइने - अकबरी के भाषांतरकार पंडित रामलाल पाण्डेय अपने लेख ' अकबर की धार्मिक नीति" जो विश्ववाणी १९४२ नवम्बर + दिसम्बर संयुक्त अंक में छपा है, पृष्ठ ३४९ पर लिखते हैं "महाभारत के भाषांतरकार सुल्तान थानेसुरी ने जब गौ हत्या की तो थानेश्वर के हिन्दुओं की शिकायत पर उसे देश निर्वासन का दण्ड दिया गया था, उसकी महान विद्वता और प्रभाव उसे इस दण्ड से न बचा सके ।" आज स्वतन्त्र भारत में त्राहि-त्राहि होने पर सरकार इस पर पूर्ण रूपेण अंकुश लगाने में असमर्थ है ।
पं. मदनमोहन मालवीय जी के शब्दों में "गो-वध की नीति ने हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को गम्भीर आघात पहुँचाया है। यही नहीं भारत में रहने वाली तमाम जातियों को भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी है। समस्त राष्ट्र के कल्याण के लिये गौ वध बंदी पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये ।
१. घातकः खादको वापि तथा यश्चानुमन्यते ।
यावन्ति तस्या रोमाणि तावद् वर्षाणि मज्जति ॥ अनुशासन पर्व अध्याय ७४ श्लोक ४
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