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________________ ( ९६ ) दूसरे व्रत सत्य को ही लीजिये -असत्य बोलने से कैसे हिंसा होती है इसका बड़ा सुन्दर प्रसंग प्रस्तुत किया है, जैनाचार्य श्रीमद् विजय धर्मं सूरीश्वरजी ने—जब वे कलकत्ता में अहिंसा का उपदेश दे रहे थे, तब रायबहादुर रामदास सेन सान्याल जी ओलाजिकल गार्डन के सुपरिन्टेन्डेन्ट इनसे मिले और कहा कि महाराज ! जीव - हिंसा की अपेक्षा झूठ बोलने में महान पाप है । महाराज श्री ने तुरन्त उत्तर दिया- जीव को मारना' इसका नाम हिंसा नहीं है, क्योंकि जीव तो कदापि मरता ही नहीं । हम हिंसा के लिये यहाँ तक कहते हैं कि " द्वेषबुद्धया अन्यस्य दुःखोत्पादनं हिंसा" अर्थात द्वेष बुद्धि से दूसरे को दुख देना इसी का नाम हिंसा है । अब विचार करिए कि झूठ बोलने से क्या दूसरे को दुख उत्पन्न नहीं होता । होता ही है और जब होता ही है तो उसका नाम हिंसा है इसी उपदेश के परिणामस्वरूप सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब ने मछली व माँस खाना छोड़ दिया । १ सच पूछा जायें तो अहिंसा जैन धर्म की आत्मा है उसमें किसी भी समय परिवर्तन नहीं हो सकता । अतः " जैन धर्म" को समझने के लिए "अहिंसा" को भली-भाँति समझना आवश्यक है और "अहिंसा" को समझने के लिये “जैन धर्म" को समझना आवश्यक है क्योंकि दोनों एक रूप हैं इन्हें अलग नहीं किया जा सकता । जैन धर्म का प्रश्न आते ही हमारे मस्तिष्क में अहिंसा घूम जाती है और यदि कहीं अहिंसा का प्रश्न हो तो जैन धर्म याद आ जाता है । न केवल जैन अपितु जैनेतर भी जब कभी अहिंसा का स्मरण करते हैं तो जैन धर्म को याद करना नहीं भूलते लेकिन अहिंसा तत्व इतना सूक्ष्म हैं कि लोग उसे ठीक से समझ नहीं पाते क्योंकि वे उसके सूक्ष्स रूप को न समझकर केवल स्थूल रूप को पकड़ लेते हैं । अतएव के सम्बन्ध में तीर्थ करों अथवा आचार्यों ने जो स्पष्टीकरण दिए हैं उनका यथार्थ रूप समझ लेने पर कहीं भी गलती नहीं होगी । १. विजय धम सूरि जीवन रेखा - रघुनाथ प्रसाद सिंहानिया पृ. २६-२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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