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________________ ( ९५ ) इस ऐतिहासिक उदाहरण से गृहस्थ के जैन धर्म की अहिंसा का यथार्थ रूप समझ में आ जाता है । अत: अहिंसा कायरता है या जैन सेना में भर्ती नहीं हो सकते, इत्यादि आरोप निराधार है। हम डंके की चोट पर कह सकते हैं-"अहिंसा वीरस्य भूषणम् ।" जैन मुनियों के लिये अहिंसावत बहुत ही महत्व रखता है इसका सम्यक् प्रकार से पालन करने के लिये निम्नलिखित सावधानियां आवश्यक मानी गई है १. इर्या समिति-चलते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि कहीं हिंसा न हो जायें इसलिये उन्हीं स्थानों पर चलना चाहिये जहाँ मार्ग व्यवस्थित हों क्योंकि वहाँ जीव-जन्तुओं के पैर से कुचले जाने की सम्भावना बहुत कम होगी। २. भाषा समिति-सदा मधुर एवं प्रिय भाषा बोलनी चाहिये क्योंकि कठोर वाणी से वाचिक हिंसा होती है साथ ही यह सम्भावना बनी रहती है कि शाब्दिक लड़ाई से बढ़ते-बढ़ते कहीं शारीरिक लड़ाई न हो जाये। ३. एषणा समिति-भिक्षा ग्रहण करते हुए मुनि को यह ध्यान रखना चाहिये कि भोजन में किसी प्रकार की हिंसा तो नहीं को गई है अथवा भोजन में किसी प्रकार के कृमि तो नहीं है। ५ आदान क्षेपणा समिति-मुनि को अपने धार्मिक कर्तव्यों का पालन करने के लिये जिन वस्तुओं का अपने पास रखना आवश्यक है उनमें निरन्तर यह देखते रहना चाहिये कि कहीं कोड़े तो नहीं हैं। ५. व्युत्सर्ग समिति-पेशाब व मल त्याग करते समय भी यह ध्यान रखना चाहिये कि जिस स्थान पर वे ये कार्य कर रहे हैं वहां जीवजन्तु तो नहीं हैं। नि:संदेह अहिंसा की जितनी गहरी मीमांसा, जितना सूक्ष्म विवेचन एवं आचरण जैन धर्म में है किसी जेनेतर परम्परा में नहीं। पंचव्रतों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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