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है। सच्ची भक्ति अथवा कहें कि सच्चा प्रसाद तो यही है, बाकि तो मांसभक्षी अपनी तृप्ति के लिये देवी का नाम आगे रखकर देवी को ही कलंकित करते हैं।
क्या माँस मन ष्य प्रकृति के अन कूल है ? ।
यदि आदि काल से मानव आहार पर एक दृष्टि डाली जाये तो यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि किसी भी काल में माँस मनुष्य प्रकृति के अनुकूल नहीं रहा । इसका सबल प्रमाण सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता राखालदास वंदोपाध्याय ने दिया है । वे लिखते हैं - यह निश्चित है कि मानव-जीवन के प्रारम्भ में हमारे पूर्व पुरुष फलाहारी थे-मांस भोजन नहीं करते थे। तत्पश्चात युग परिवर्तन के कारण मानव के जन्म के बाद बहुत समय होने पर, ग्रीष्म प्रधान अथवा शीतोष्ण ऐसा देश समूह क्रमश: अथवा यकायक शीत प्रधान हुआ। इस कारण से, आदि मनुष्यों के लीला क्षेत्र समूह में जीवनोपयोगी फल-मूल का अभाव हुआ। इस परिवर्तन के युग में आदि मनुष्य को फल-मूल के बदले में पशु-मांस के भोजन में प्रवृत्ति करनी पड़ी। मांसाहारी जीवों को जन्म काल से, जिस प्रकार के तीक्ष्ण नख- दाँत होते हैं, वैसे मनुष्यों को किसी भी अवस्था में नहीं होते। इससे उन आदि मनुष्यों को जीवन यात्रा निर्वाह के लिये पशु हत्या के उपयोगी शस्रों का अन्वेषण करने की प्रवृत्ति करनी पड़ी। आदि मनुष्यों ने उस समय कृत्रिम उपाय से भी अग्नि को उसन्न करने की शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। सुतरां, धातु का व्यवहार अज्ञात था। उसी युग विप्लव के समय में हमारे पूर्व पुरूषों ने जिन आयुध किंवा प्रहरण का संग्रह किया था, वह तीक्ष्ण धार वाले पत्थर के टुकड़े मात्र थे।"१
राखालदास जी के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि प्राचीन तत्वों की खोज करने वाले जिस समय को आदि समय मानते हैं उस समय में भी
१. बंगाल इतिहास भागा-श्री राखालदास बंदोपाध्याय पृ० ३
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