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________________ ( ९९ ) आचार्य मल्लिषेण स्पष्टीकरण करते हैं : सामान्य रूप से संयम की रक्षा के लिये नवकोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करना उत्सर्ग है परन्तु यदि कोई मुनि तथाविध द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धि आपत्तियों से ग्रस्त हो जाता है और उस समय गत्यन्तर न होने से उचित यतना के साथ अनेषणीय आहार जादि ग्रहण करता है, यह अपवाद मार्ग है। किन्तु अपवाद भी उत्सर्ग के समान संयम को रक्षा के लिये होता है।"१ आचार्यों के अभिप्राय का निष्कर्ष यही है कि सामान्य उत्सर्ग है और विशेष अपवाद । प्रतिदिन की साधना में जो नियम संयम की रक्षा के लिए होते हैं, आपत्ति काल में उनमें परिवर्तन आवश्यक हो जाता है फिर बाह्य तौर पर उनका आचरण चाहे संयम के विपरीत ही जान पड़ता है लेकिन हम उसे संयम का उल्लंघन नहीं कह सकते क्योंकि वह आचरण भी संयम की सुरक्षा के लिए ही किया जाता है। अपवाद मार्ग को यू भी कहा जा सकता है- “अकरणीय कार्यों को विशेष परिस्थितियों में करने को ही अपवाद कहते हैं ।" स्मरणीय रहे कि उत्सगं और अपवाद दोनों का लक्ष्य एक ही है--संयम को रक्षा करना । उत्सर्ग मार्ग को विशेष परिस्थितियों में छोड़कर अपवाद मार्ग अपनाया जाता है लेकिन विशेष परिस्थितियां समाप्त होते ही साधक को उत्सगै मार्ग पर आ जाना चाहिए । कहने का तात्पर्य है कि आपत्तिकाल में जितना आवश्यक हो उतना हो अपवाद मार्ग का सेवन करना चाहिए। अपवाद मार्ग की सीमाओं को एक पौराणिक कथा द्वारा सहज ही समझा जा सकता है एक समय बारह वर्षीय भयंकर अकाल पड़ा। सर्वत्र त्राहि-त्राहि होने लगी। लोग भूखे मरने लगे। क ऋषि भूख से त्रस्त अन्न के लिये भटक रहे थे। उन्होंने देखा कि राजा के कुछ हस्तिपक (पीलवान) बैठे हैं, मध्य १. स्याद्वाद मंजरी-कारिका ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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