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________________ ( ९८ ) "जीव यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक खड़ा होवे, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोवे, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक भाषण करे तो वह पाप कर्म को नहीं बाँधता है ।१ अहिंसा का उत्सर्ग व अपवाद मार्ग :- . आध्यात्मिक जीवन में साधना का विशेष महत्व है और साधना की सीमा में प्रवेश करते हो उसके प्रमुख अंगों उत्सर्ग व अपवाद पर हमारा ध्यान केन्द्रित हो जाता है । वस्तुत ये दोनों अंग साधना के प्राण हैं । जिस तरह चलने के लिये दाँये व बाँये पैर की आवश्यकता होती है। एक के अभाव में मनुष्य पंगु बन जाता है उसी प्रकार साधना के लिये दोनों अंग आवश्यक हैं। एक के भी अभाव में साधना विकृत एवं एकांगी बन जायेगी। साधक के जीवन के लिए उत्सर्ग एवं अपवाद को आवश्यक ही नहीं बल्कि अपरिहार्य मानना चाहिए। उत्सर्ग व अपवाद शब्दों का तात्पर्य क्या है ? प्रस्तुत विषय में आचार्य हरिभद्र का कथन है कि "द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की अनुकूलता से युक्त समर्थ साधक के द्वारा किया जाने वाला कल्पनीय (शुद्ध) अन्नपान गवेषणादि, रूप उचित अनुष्ठान उत्सर्ग है, और द्रव्यादि अनुकूलता से रहित का यतनापूर्वक तथाविध अकल्प्यसेवन रूप उचित अनुष्ठान अपवाद है ।"२ . जयंचरे जयं चिळे, जयमासे जयं सए जय भुजतो भासंतो. पावकम्मं न बंधइ ॥८॥ दशकालिक सूत्र- अध्याय ४ बुद्ध ने भी ऐसा ही कहा है- भिक्षु यतना से खड़ा रहे, यतना से बैठे, यतना से सोए, यतना से संकुचित और यतना से फैलाये........... इतिवृत्तकं पृ. १०१ पद---गाथा ७८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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