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जगत् कल्याण की कसौटी अहिंसा :
प्राय: जैन-धर्म की अहिंसा पर कायरता अथवा दुर्बलता का दोषारोपण किया जाता है । लेकिन यह आरोप उतना ही निराधार है जितना सूर्य पर अन्धकार का पिण्ड होने का आरोप लगाना । बहुत से प्रतिष्ठित विद्वान इसको अव्यवहारिक और कायरता की जननी समझ राष्ट्रनाशक बताते हैं ऐसे लोगों के लिए हम तो यही कहेंगे कि उन्होंने अहिंसा के यथार्थ रूप को समझने का कष्ट ही नहीं किया । अहिला पर लगाये ये आरोप प्रमाण रहित और शक्ति शून्य हैं ।
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भारत का प्राचीन इतिहास डंके की चोट से बतला रहा है कि जब तक इस देश पर अहिंसा प्रधान जातियों का राज्य रहा तब तक यहाँ की प्रजा में शान्ति, शौर्य, सुख पूर्ण रूप से व्याप्त था । इतिहास साक्षी है-आर्य महागिरो ने सम्प्रति राजा को, बप्पभट्टी ने आम राजा को, सिद्धसेन दिवाकर ने राजा विक्रमादित्य को, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने राजा कुमारपाल को और विजय हीर सूरि ने अकबर महान को प्रतिबोध देकर जो लोक कल्याण के कार्य करवाये वे किसी से छिपे नहीं हैं । आखिर ये सब महापुरुष कौन थे ? अहिंसा व्रतधारी जैन धर्माचार्य हो तो थे । इसी प्रकार आधुनिक युग में भी न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य पूज्य श्री विजयानन्द सूरि (श्री आत्मारामजी) जगत् पूज्य, शास्त्र विशारद् जैनाचार्य श्रीमद् विजय धर्म सूरिजी एवं कलिकाल - कल्पतरू श्री विजय वल्लभ सूरिजी ने भी अहिंसा धर्म का अनवरत प्रचार किया । महात्मा गाँधी तो आजीवन भगवान महावोर के मुक्त कण्ठ से प्रशंसक बने रहे । विलायत जाते समय गाँधीजी ने जैन सन्त श्रीमद् राजचन्द्र भाई से मद्य, मांस तथा पर स्त्री सेवन त्याग की प्रतिज्ञा ली थी और जिसके प्रभाव से गाँधीजी के जीवन में अहिंसात्मक उज्जवल क्रांति का जागरण हुआ था उसे फाँस के विश्व-विख्यात लेखक रोम्यारोला " जैनों की प्रतिज्ञा त्रयी" कहते हैं ।
कलकत्ता में काली मन्दिर में देवी के आगे रक्त की वैतरिणी देख गाँधीजी व्याकुल हो उठे थे । उनका करुणापूर्ण अन्त:करण रो पड़ा था ।
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