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________________ ( १०७ ) अपनी अन्तर्वेदना को व्यक्त करते हुए वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं"जब हम मन्दिर में पहुँचे तब खून की बहती हुई नदी से हमारा स्वागत हुआ । यह दृश्य मैं नहीं देख सका मैं बेचैन और व्याकुल हो उठा। मैं उस दृश्य को भी नहीं विस्मृत कर सकता हूँ।" क्या वे अहिंसा के पुजारी नहीं थे ? वस्तुत: अहिंसा में कायरता के लिये तो स्थान है ही नहीं। इसका तो प्रथम पाठ ही निर्भयता का है। शौर्य आत्मा का एक गुण है, जब वह आत्मा के ही द्वारा प्रकट किया जाता है तब अहिंसा कहलाता है और जब शरीर के द्वारा प्रकट किया जाता है तब वीरता! जैन-धर्म की अहिंसा या तो वीरता का पाठ पढ़ाती है या क्षमा का। निशीथ चूणि में कालकाचार्य की कथा आती है—एक बार उनकी साध्वी बहन को पकड़कर उज्जयिनो के राजा गर्दभिल्ल ने अपने महल में रखवा दिया। कालकाचार्य इसे कैसे सहन कर सकते थे ? गर्दभिल्ल को समझाने के जब सारे प्रयास विफल रहे तो कालकाचार्य ईरान पहुँचे और वहां से ९६ शाहों को लाकर गर्दभिल्ल पर चढ़ाई कर दो । तत्पश्चात शाहों को उज्जयिनी के तख्त पर बैठाकर अपनी बहन को पुन: धर्म में दीक्षित किया ।१ इस कथानक के जो चित्र उपलब्ध हुए हैं उनमें स्वयं कालकाचार्य अपने साधू के उपकरण लिये हुए अश्वारूढ़ होकर शत्रु पर बाण छोड़ते हुए दिखाये गये हैं। क्या यह प्रसंग कालकाचार्य को वीरता प्रदर्शित नहीं करता? क्या उन्होंने अन्याय का प्रतिकार नहीं किया ? जैन धर्म उन क्षत्रियों का धर्म है जो युद्ध स्थल में दुश्मन का सामना तलवार से करना और उसे क्षमा करना भी जानते थे। जैन क्षत्रियों के लिए शास्त्रों में आदेश है-“अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर युद्ध भूमि में जो शत्रु बनकर आया हो या अपने देश का दुश्मन हो, उसो पर राजागण अस्त्र प्रहार करते हैं । कमजोर निहत्थे कायरों और सदाशयी पुरुषों पर नहीं।"२ १. निशीथ सूत्रम-भाग ३, उद्देशक १०, गाथा २८६० २, यशस्तिलक पृ. ९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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