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( १२२ ) कोसम्बी ने अपनी “भगवान बुद्ध" नामक पुस्तक के २६४ वें पृष्ठ पर दशवकालिक सूत्र की कुछ गाथाओं का अर्थ इस प्रकार किया है-“बहुत हड्डियों वाला मांस, बहुत कांटों वाली मछली, अस्थि वृक्ष का फल, बेल का फल, गन्ना, शामिल आदि पदार्थों (जिनमें खाने का भाग कम और फेंकने का अधिक होता है) के बारे में देने वाली को यह कहकर रोका जाये कि ये मेरे लायक नहीं है।"
हमने ऊपर “अस्थि" व "मांस" शब्द का विश्लेषण कर किया है अत: इन शब्दों का अर्थ अच्छी तरह से समझ लेने पर हम इस सूत्र का अर्थ इस प्रकार करेंगे “बहु गुठली वाला फल तथा मेवों का सारभाग तथा पिष्ट से बनाये गये सकंटक मत्स्य, अस्थिक वृक्ष, तिन्द वृक्ष और बिल्ब वृक्ष के फल तथा गन्ने का टुकड़ा शिम्बा (फली) आदि भोजन पदार्थ (जिसमें खाने का भाग कम और फेंकने का अधिक होता है) के बारे में देने वाली को यह कहकर रोके कि ये मेरे लायक नहीं है।" ___ वर्तमान काल में भी माँस मछली लेना तो दर किनार जैसे साधू कितने फल सब्जी भी नहीं लेते । जैसे कटहल, सेजने की फली, बैंगन आदि क्योंकि कटहल की बनावट देखने से ही अजब सी प्रतीत होती है, उसका आधे से भी अधिक भाग फेंकना पड़ता है और यह बहु काँटों वाला फल है। सेजने की फली की भी ऐसी ही स्थिति है उसमें भी फली को चूसकर फक दिया जाता है क्योंकि उसे चबाकर निगला नहीं जा सकता। बैंगन बहु बीजाफल है। कौसम्बी ने जो यह अर्थ का अनर्थ किया है इसका मूल कारण उनका स्वयं का संस्कार जान पड़ता है क्योंकि वे गोवा के निवासी थे, जहां मांस-मदिरा का प्रचलन तो आम बात है इसके अलावा वे जिस धर्म से सम्बन्धित थे उसमें भी मांसाहार पर पूर्णतया प्रतिबन्ध नहीं है। यद्यपि उस समुदाय में भी ऐसे साधू थे और आज भी हैं जो मांसाहार नहीं करते जैसे-भदन्त आनन्द कौशल्यायन, जगदीश कश्यप। ये दोनों साधू जब आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरिजी से मिले तो स्वयं बताया कि जब हम श्रीलंका में अध्ययन
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