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________________ ( ८ ) अतः यथारूचि से यज्ञों में जीव हिंसा करो और उन जीवों का मांस भक्षण करो इसमें कुछ दोष नहीं क्योंकि देवोद्देश करने से माँस पवित्र हो जाता है । इस तरह में अनर्गल तर्क देकर यज्ञों में निर्दोष पशुओं का होम होने लगा। यज्ञों की संख्या व परिमाण बढ़ने के साथ-साथ उनकी अवधि भी कुछ दिनों से लेकर सौ-सौ वर्षों तक की होने लगी। अनेकों पुरोहित अपने सहायकों के साथ यज्ञ मंडप में विधि क्रियाओं की देख-रेख करने लगे। जनता इन यज्ञों में अपना धन पानी की तरह बहाने लगी। कहने का तात्पर्य है कि यज्ञों की विधि इतनी पेचीदा हो गई कि सर्व साधारण जनता की समझ से परे हो गई। बस जनता को तो वेदोक्त हिंसा को हिंसा नहीं बल्कि अहिंसा मानने वालों का यही तर्क याद रहा कि शास्र विधि से यज्ञों में पशु होम करने से सर्व देवता तृप्त हो जाते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति होती है । हमारा विषय तो यहाँ यह देखने का है कि क्या वास्तव में इस तरह से यज्ञ में बलि दिये पशु स्वर्ग में जाते हैं ? यदि ऐसा है तो यहाँ यह दृष्टांत उचित है जो यज्ञ में होम किये जाते हुए एक पशु का पक्ष लेकर कवि पशु को तरफ से कहता है कि--"मैं स्वर्ग-फल के भोग का प्यासा नहीं हूँ और न मैंने तुमसे यह प्रार्थना की है कि तुम मुझे यज्ञ में डालकर स्वर्ग में पहुचाओ । मैं तो घास खाकर जोवन व्यतीत करने में संतुष्ट हूँ । इसलिये हे सज्जन पुरुष तुझे यह कार्य करना उचित नहीं है। यदि तुम्हारे द्वारा होमे जाने वाले प्राणी स्वर्ग में ही जाते हैं तो फिर तुम अपने प्यारे से प्यारे माता-पिता, पुत्र और : भाईयों द्वारा यज्ञ पूरा क्यों नहीं करते अर्थात् उनको इस यज्ञ में डालकर स्वर्ग में क्यों नहीं पहुंचाते । बृहस्पति जी कहते हैं-- "पशुश्चेनिहताः स्वर्गम् ज्योतिष्टोमे गमिष्यति । स्वपिता यजमानेन, तत्रकस्मान्न हन्यते ॥" अर्थात् यज्ञ में मारा हुआ पशु यदि स्वर्ग में जायेगा तो यजमान अपने पिता को ही उस यज्ञ में क्यों नहीं मारता । वास्तव में धर्म की आड़ में कैसी विडम्बना? और फिर यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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