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वह पश्चाताप करता है रहा । लेखिका ने उसका एक कथन उद्धृत किया है" मैंने ऐसे पाप किये हैं । जैसे आज तक किसी ने नहीं किये होंगे जब मैंने चित्तौड़गढ़ जीत लिया उस समय राणा के मनुष्य, हाथी, घोड़े मारे थे । इतना ही नहीं चित्तौड़ के एक कुत्ते को भी नहीं छोड़ा था। ऐसे पाप से मैंने बहुत से किले जीते हैं, लेकिन भविष्य में मैं इस तरह के दुष्कार्य न करने की प्रतिज्ञा करता हूँ । लेखिका ने इस कथन का स्त्रोत नहीं दिया है ।
गो-वध की मुमानियत के बारे में लेखिका ने रामलाल पाण्डेय के लेख का यह अंश उद्धृत किया है - "गो-वध तो बराबर बन्द रहता था ही, पर उसके बधिक के लिये प्राण दण्ड को सजा थी । यह राजाज्ञा शब्दों तक ही सीमित न थी, वरन् उसे कार्य रूप में परिणत करके दिखाया गया । महाभारत के भाषान्तर कार शेख सुलतान थानेसुरी ने जब गो-हत्या की तो थानेश्वर के हिन्दुओं की शिकायत पर उसे देश - निर्वासन का दण्ड दिया गया था । उसकी महान् विद्वता और प्रभाव उसे इस दण्ड से न बचा सके ।"
अकबर के पश्चात् जहाँगीर के राज्यकाल में भी बादशाह की धार्मिक नीति में कुछ उदारता रही। जहाँगीर भी अन्य धर्मो के सन्तों और विद्वानों से मिलता रहता था । जैन सन्तों से भी वह मिलता था उसने इबादतखाना आबाद रखा और उसमें पहले की ही तरह धार्मिक चर्चाएँ जारी रखी जिनमें वह सभी धर्मो के सन्तों और विद्वानों को बुलाता था । वह धार्मिक भेद-भावों नापसन्द करता था। जहाँगीर के दरबार में भी हिन्दू और जैन ऊँचे पदों पर रहे थे । उसने सती प्रथा के विरूद्ध भी आदेश निकाला था । " मादक द्रव्यों की खुलेआम बिक्री रोक दी गई थी, धर्म परिवर्तन कराने को भी उसने अपराध घोषित किया था ।"
शाहजहाँ की धार्मिक नीति वह नहीं थी जो अकबर और जहाँगीर की थी । उसने हिन्दुओं पर तीर्थ यात्रा कर जैसे कर लगाकर अपनी कट्टर धार्मिक नीति का परिचय दिया । किन्तु धार्मिक सहिष्णुता उसमें कुछ अंशों में थी, क्योंकि शासक यदि शासितों के प्रति पूरी तरह से असहिष्णु रहे, तो उसका शासन चल नहीं सकता ।
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