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पूज्य आत्माराज जी ( आनन्द विजय जी ) ने अपनी पुस्तक "अज्ञानतिमिर भास्कर" के प्रथम भाग में वेद, स्मृति, उपनिषद और पुराण आदि शास्रों में बताये यज्ञों के स्वरूप का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। वे लिखते हैं-- 'द्यावा पृथ्वी देवता के वास्ते धेनु अर्थात् गौ-वध करके यज्ञ होता है।"
वायु देवता के वास्ते बछड़े का बध करना। यह इस प्रकार से गाय यज्ञ होता है सो गौसव नाम यज्ञ है। प्रजापति देव पशु को उत्पन्न करा है तिस पशु को लेके अन्य देवताओं ने यज्ञ करा तिस से तिन की मनोकामना पूरी हुई है। प्रजापति देवता को घोड़ा योग्य पशु है तिस वास्ते प्रजापति देवता के ताई घोड़े का बंध होता है ऐसा करने से समृद्धि मिलती है ।
एकादश अर्थात् ग्यारह पशु का भी यज्ञ होता है। अनेक प्रकार के देवते है तिनको अनेक प्रकार के पशु यज्ञ में वध करने दिये जाते हैं । आरण्य जंगलो पशु दश भी होते हैं। ग्राम्य पशु भी यज्ञ में वध करके दिये जाते हैं । गाम के तथा जंगल के दोनों ठिकाने के रहने वाले पशु यज्ञ के वास्ते वध करने योग्य है । अश्वमेघ यज्ञ जो करता है तिसका तेज बंधता है।
जंगल के पशु लेकर यज्ञ करना तिसमें गाय विशेष करके यज्ञ के योग्य है, जिस वास्ते जेकर अच्छा दिन होवे तो गाय का हो वध करना। कुत्ते को लाठी से मारके घोड़े के पगतले गेरना जो अश्वमेघ यज्ञ करता है जिसके घर में पशुओं को वृद्धि होती है। बकरे का बच्चा, तीतर पक्षी, सफेद बगुला और काला टपका वाला मीढ़ा ये सर्वत्वाष्टा देवता के वास्ते यज्ञ में वध करे जाते हैं। इस यज्ञ के करने से यह लोक में तथा परलोक में सुख मिलता है ब्रह्म देवता के वास्ते ब्राह्मण का भी होता है।
अठारह पशु का भी यज्ञ होता है ।१ १. अज्ञानतिमिर भास्कर-पूज्य आत्माराम जी पृ०८
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