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________________ ( २ ) की पूजा के निमित्त किया जाता था, उसमें घृत, यव,ब्रीहि आदि से बने पुरोडाश की आहुतियाँ दी जाती थीं परन्तु जैसे-जैसे पुरोहितों को इन अनुष्ठानों से अधिकाधिक लाभ होता गया वैसे-वैसे वे अनेक बड़े-बड़े यज्ञों की सृष्टि करते गये । प्रारम्भ में प्रत्येक अधिकार प्राप्त वैदिक धर्मानुयायी ग्रहस्थ अपने धर में पाँच प्रकार के यज्ञ करते थे। "पढ़ना-पढ़ाना ब्रह्म यज्ञ है, (अन्न व जल से) तर्पण पितृयज्ञ है हवन देव यज्ञ है, बलिवैश्वदेव भूत यज्ञ है और अतिथि पूजन मनुष्य यज्ञ है।" इन पाँच यज्ञों को शास्रों में महायज्ञ के नाम से निर्दिष्ट किया गया है। भारतीय वैदिक धर्म की सभ्यता की जड़ ये ही पाँच महायज्ञ थे। लेकिन उत्तर वैदिक काल तक आते-आते कर्म-काँड का विस्तार हुआ कई प्रकार के लम्बे, खर्चीले और पेचीदे यज्ञ होने लगे जिनमें बड़ी संख्या में पशुओं का भी होम किया जाने लगा। यद्यपि उस काल के लोगों के आहार का एक विशिष्ट अंग माँस भी था जैसा कि भगवत शरण उपाध्याय लिखते हैं"भेड़-बकरी का माँस अधिकता से खाया जाता था। मांस आर्य लोग अपने देवताओं की पूजा में भी व्यवहृत करते थे । यज्ञों में देव पूजन से अवशिष्ट माँस ऋत्विज और यजमान दोनों को ही भक्ष्य था। उत्सवों में और अतिथियों के स्वागत के अवसर पर भोजन के निमित्त गाय का बछड़ा मारा जाता था। अतिथिग्व इसी कारण उसकी संज्ञा हो गयी थी। परन्तु अपनी उपादेयता के कारण शीघ्र ही गाय की संज्ञा अन्या हो गई। ऋषियों ने उसकी स्तुति में गीत गाये और उसका वध निषिद्ध हो गया।" इसी बात को डॉ राजबलि पांडेय ने भी कहा है ।२ यज्ञों में गो-बलि का विधान कब से प्रारम्भ हुआ, इस विषय पर यहाँ महात्मा बुद्ध का दृष्टांत उल्लेखनीय है बुद्ध जब श्रावस्ती के अनाथ पिंडक १. प्राचीन भारत का इतिहास-भगवत शरण उपाध्याय पृ० ३२ २. भारतीय इतिहास की भूमिका-डॉ. राजबलि पांडेय पृ० ६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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