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________________ ( ८४ ) सर्व व्रती और पूर्ण त्यागी मनुष्य है उससे यदि सूक्ष्म कायिक हिंसा होती भी है तो वह उसके फल का भोक्ता नहीं हो सकता क्योंकि उससे होने वाली उस हिंसा में उसके भाव रंच मात्र भी अशुद्ध नहीं होने पाते और हिंसक भावों से रहित होने वाली हिंसा - हिंसा नहीं कहलाती । आवश्यक महाभाष्य में लिखा है कि किसी जीव को कष्ट पहुँचाने में जो अशुभ परिणाम निमित्त भूत होते हैं उन्हीं को हिंसा कहते हैं और बाह्य दृष्टि से हिंसा मालूम होने पर भी जिसके अंतर्परिणाम शुद्ध रहते हैं वह हिंसा नहीं कहलाती । धर्मरत्न मंजूषा में कहा है-समिति * गुप्त युक्त महावृत्तियों से किसी जीव का वध हो जाने पर भी उन्हें उसका बंध नहीं होता, क्योंकि बंध में मानसिक भाव ही कारण भूत होते हैं कायिक व्यापार नहीं। इसके वितरित जिसका मन शुद्ध अथवा संयत नहीं है, जो विषय तथा कषाय से लिप्त है वह बाह्य स्वरूप में अहिंसक दिखाई देने पर भी हिंसक ही है। उसके लिये स्पष्ट कहा गया है - जिसका मन दुष्ट भावों से भरा हुआ है वह यदि कायिक रूप से किसी को नहीं मारता है तो भी हिंसक ही है । जैन धर्म की दृष्टि से यही हिंसा एवं अहिंसा का अर्थ है । हिंसा के भेद : तीर्थकरों एवं जैनाचार्यों ने मूल में हिंसा के दो भेद किये हैं१. भाव हिंसा २. द्रव्य हिंसा । दशकालिक चूर्ण के प्रथम अध्ययन के द्रव्य - हिंसा और भाव- हिंसा को लेकर हिंसा के चार विकल्प किये गये हैं जिसे आगम की परम्परा में चौभंगी कहा गया है जो इस प्रकार है १. भाव हिंसा हो, द्रव्य हिंसा न हो । २. द्रव्य हिंसा हो; भाव हिंसा न हो । * जैन पारिभाषिक शब्दों में समिति शब्द से तात्पर्य उपयोग पूर्वक (विवेक पूर्वक) कार्य करने से लिया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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