SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४ ) मारी जाती हैं । इसी के कारण याजक ब्राह्मण लोग धर्म से पतित हो गये । इस प्रकार यह याज्ञिक धर्म पुराना होने पर भी बुद्धिमान पुरुषों के सामने तुच्छ और गर्हित है और जहाँ धर्मज्ञ मनुष्य इन याज्ञिक ब्राह्मणों को देखते है, वहीं उनकी निन्दा करता है । Jain Education International यदि पंच महायज्ञों का उद्देश्य पूरा करने वाले केवल पुरोहित वर्ग ही रहे होते तो मूल वैदिक संस्कृति में जो प्रचुर परिवर्तन हुआ वह न होता, लेकिन कुछ ऋषि-मुनियों ने वेदों की मौलिकता और वैदिक संस्कृति की उतनी चिन्ता नहीं की जितनी कि अपने विचारों और उद्देश्यों की । देवताओं ने जब गौ-मेध किया और गौ-मेध अमेध्य हो गया, उसके बाद याज्ञवल्क्य के सिवाय न किसी ब्राह्मण ने गौ का यज्ञ में बलिदान दिया, न गौ-माँस ही खाया क्योंकि सभी ब्राह्मण विद्वान दीक्षित अवस्था में माँस न खाने और गौवध न करने के विषय में एकमत थे फिर भी याज्ञवल्क्य उनके साथ नहीं रहे, उन्हें अन्न और माँस में कोई अंतर नहीं दिखायी दिया। जब देवताओं ने याज्ञवल्क्य से कहा- गाय बैल अनेक प्रकार से संसार के उपयोगी प्राणी हैं हमने इनमें सभी प्राणियों की शक्ति रख दी है अतः गाय-बैल को न मारना चाहिये न खाना चाहिये तब उसने अपना वाजसनेय नामक सम्प्रदाय चलाकर यज्ञों में पशु वध करना निर्दोष माना और कहा- जो गाय और बैल माँसल होता है उसको मैं खाता हूँ । गौ अमेध्य के अतिरिक्त शतपथ ब्राह्मण में देवताओं द्वारा बलि किये हुए उत्क्रान्त मेध्य पशुओं की नामावलि दी है जो इस प्रकार है-“पहिले-पहल देवताओं ने मनुष्य को बलि दिया। जब वह बलि दिया गया तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल गया और उसने घोड़े में प्रवेश किया । तब उन्होंने घोड़े को बलि किया । जब घोड़े को बलि किया तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल गया और उसने बैल में प्रवेश किया। तब उन्होंने बैल को बलि दिया । जब बैल को बलि दिया गया तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल कर भेड़ी में प्रवेश १. बुद्धचर्या - ब्राह्मण धम्मिय सुत्त हिन्दी अनुवाद - राहुल सांकृत्यायन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy