Book Title: Vibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Author(s): Nina Jain
Publisher: Kashiram Saraf Shivpuri

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Page 182
________________ ( १६३ ) था । बादशाह के दरबार में आये कुछ तत्कालीन विदेशी यात्रियों ने तो यहाँ तक लिख मारा कि बादशाह ब्रती (जैन) सम्प्रदाय के अनुसार आचरण करने लगा है तथा जीव दया पालन करने लगा है । जहाँगीर व शाहजहाँ ने भी बहुत कुछ हद तक बादशाह अकबर द्वारा प्रारम्भ की गई धार्मिक सहिष्णुता की नीति को जारी रखा यद्यपि उसमें उत्तरोत्तर हास होता गया । परिशिष्टों में बादशाहों के फरमान, शिलालेख आदि दिये गये हैं । पुस्तक रोचक है तथा संग्रहीय है । १०. भारतीय इतिहास के कई द्वन्द और अनेक विवाद हैं, जो अँग्रेजों के जाने के बाद से अपना समाधान तलाशते रहे हैं, किन्तु हमने अभी तक उन पर कोई उल्लेखनीय ध्यान नहीं दिया है । आलोच्य कृति भारतीय इतिहास में जैनों की भूमिका के पुनर्मूल्यांकन का एक ठोस । अभिनन्दनीय प्रयास है । भारत के सांस्कृतिक अभ्युत्थान में जैन मुनियों और आचार्यो ने संकटापन्न क्षणों में क्या कितना किया इसका कोई अनुसंधानमूलक अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है । प्रस्तुत कृति इस मायने में एक ऐसा स्तुत्य कदम है जो आगे चलकर दिशादर्शक सिद्ध होगा । विदुषी लेखिया ने तथ्यों का सतर्क । श्रमसाध्य दोहन किया और उन आधार भूमियों को स्पष्ट किया है, जो भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन के संवेदनशील क्षणों में महत्व की सिद्ध होगी । हमें चाहिए कि हम ऐसे प्रयत्नों को उत्साहित करे और उन तथ्यों का उत्खनन करें जो जैन धर्म, दर्शन, आचार आदि की उज्जवलताओं को सामने लाने में समर्थ हों । हमें विश्वास है इस पुस्तक को व्यापक रूप में पढ़ा जाएगा ताकि इतिहास के पुनर्लेखन का जो संकट है । इसके लिये एक स्वस्थ समझ विकसित हो सके । शोधादर्श, लखनऊ नवम्बर १९९१ मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों (आचार्यों एवं मुनियों) का प्रभाव ( १५५५ - १६५८) कु. नीना जैन, काशीनाश सराक, आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि शोध संस्थान शिवपुरी (म. प्र. ) Jain Education International For Private & Personal Use Only तीर्थंकर, इन्दौर जून, १९९२ www.jainelibrary.org

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