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चातुर्मास में साधुओं को निष्प्रयोजन बिहार न करके एक ही स्थान पर रहने की जिनाज्ञा है लेकिन विशेष धर्म प्रभावना और अनिष्टकारक संयोग होने से आचार्य, गीतार्थादि महानुभावों को देश-काल भाव विचार कर बिहार करने की भी अपवाद मार्ग से जिनाज्ञा है । जब विष्णु कुमार मुनि को ज्ञात हुआ कि नमुचि नामक ब्राह्मण राजा हस्तिनापुर में जैन श्रमणों को महान कष्ट पहुँचा रहा है तो वे वर्षाकाल की परवाह न करके अपना ध्यान भंगकर हस्तिनापुर आये नमुचि से तीन पैर स्थान माँगकर उसे समुचित दण्ड देकर श्रमण संघ की रक्षा की। इसी प्रकार जब आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरिजी को मुगल बादशाह अकबर का निमंत्रण मिलता है तो वे लोक कल्याण की भावना से चातुर्मास में ही बिहार कर बादशाह के दरबार में पहुचते हैं ।
जलीय जीवों की विराधना होने से भिक्षु के लिए तो सचित्त जल का स्पर्श मात्र भी निषिद्ध है लेकिन “बाल, वृद्ध और ग्लानादि (बीमार ) के लिए भिक्षार्थ जाना अत्यावश्यक हो तो उचित यतना के साथ ( कम्बली आदि देह पर लेकर) गमनागमन किया जा सकता है ।" १
अहिंसा के अपवाद मार्ग को भली-भाँति समझ लेने पर निःसंदेह कहा जा सकता है कि अपवाद में व्रत-भंग अथवा संयम नष्ट नहीं होता, बशर्ते कि अपवाद भी उत्सर्ग को भाँति अन्तर्तम की शुद्ध भावना पर आधारित हो । प्रत्यक्ष में भले ही स्फटिक जैसा उज्जवल रूप न दिखाई दे किन्तु अन्तर्मन तो निष्कलंक है । जैसा कि महापुरुषों का भी कहना है कि अन्तिम मुहर तो अन्दर ही लगती है । शास्त्रों द्वारा भी पुष्टि होती है कि -
" जिस प्रकार प्रतिषेध का पालन करने पर आचरण विशुद्ध माना जाता है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात अपवाद मार्ग पर चलने पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए ।"२
१.
योगशास्त्र - प्रकाश ३, श्लोक ८७
२. निशीथ सूत्रम - भाग १, गाथा २८७ - भाग ३, गाथा ४१०३
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