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( १०० ) में अन्न का ढेर है, सब उसो में से एक साथ लेकर खा रहे हैं और पास ही जल पात्र रखा है बीच-बीच में सब उसी में मुह लगाकर पानी भी पी रहे हैं।
ऋषि ने पीलवानों से अन्न की याचना की। पीलवानों ने कहा-महाराज अन्न तो जूठा है, कैसे दें ?
___ ऋषि ने कहा-"आपत्ति काले मर्यादा नास्ति" अत: पेट भरने के लिये जूठा ही दे दो। एक ओर बैठकर अन्न खाकर जब ऋषि जाने लगे तो पीलवानों ने कहा-महाराज ! जल भी पीते जाइये ।
ऋषि बोले-जल जूठा है मैं नहीं पी सकता।
ऋषि की बात सुनकर पीलवानों ने ठहाका मारकर कहा-महाराज ! अन्न पेट में पहुँचते ही बुद्धि लौट आई । जो अन्न आपने खाया क्या वह जूठा नहीं था ? अब पानी पीने में आप जूठे-सुच्चे का विचार किस आधार पर कर रहे हैं ?
ऋषि ने शांत भाव से प्रत्युत्तर दिया-बन्धुओं तुम्हारा सोचना ठीक है किन्तु मेरी एक मर्यादा है। अन्न अन्यत्र नहीं मिल रहा था और इधर भूख से व्याकुल प्राण मे कण्ठ मेरे आ गये थे और अधिक सहन करने की क्षमता मुझ में नहीं रह गई थी। अत: अपवाद की स्थिति को स्वीकार कर मैंने जूठा अन्न ही स्वीकार कर लिया। जल तो मुझे मेरी मर्यादा के अनुसार शुद्ध (सुच्चा) मिल सकता है अत: मैं जूठा जल पीकर व्यर्थ ही मर्यादा का उल्लंघन क्यों करूं ?
___ सार रूप में कह सकते हैं कि जहाँ तक हो सके उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना चाहिये । जब चलना दुष्कर हो जाये तो अपवाद मार्ग ग्रहण करना चाहिए। जैसे ही परिस्थितियां सामान्य हों उत्सर्ग मार्ग पर लौट आना चाहिए ।
अव हम यहाँ अहिंसा, के उत्सर्ग और अपवाद मार्ग पर सक्षेप में प्रकाश डालेंगे-भिक्षु का उत्सर्ग मार्ग है कि मन, वच, काया से किसी प्रकार के
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