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करना चाहता हूँ। पर निश्चय ही अभी भी ऐसे लोग होंगे जो पुराने सिद्धांत पर हड़ रहेंगे। मिथ्याद्दष्टि से मुक्त होना बड़ा कठिन है, पर अन्त में सदा सत्य की विजय होती है।"
डॉ. स्टेनकोनो अपने विचारों पर आजीवन इड़ रहे जब-जब किसी ने जैन सूत्रों का अनर्गल अर्थ किया तो स्टेनकोनो ने उसका खण्डन करते हुए वास्तविक अर्थ से परिचित कराया। डॉ. वाल्थेर शूबिंग की जर्मन भाषा में प्रकाशित पुस्तक “दाईलेह देर जैनॉज" की आलोचना करते हुए स्टेनकोनो ने लिखा है कि "मैं केवल एक ही तहसील का उल्लेख करूंगा, क्योंकि यूरोपीयनों के साधारण विचार का जैन लोग बड़ा विरोध करते हैं। "बहु अट्ठिय मंस और बहु कण्ठग मच्छ” का उल्लेख आचारांग में आया हैं । उससे लोग यह तात्पर्य निकालते हैं कि पुराने समय में इनकी अनुमति थी। यह विचार पृष्ठ १३७ पर दिया है। "रिव्यू ऑव फिलासफी एण्ड रेलिजन" वॉल्यूम १४, संख्या २, पूना १९३३ में प्रोफेसर कापड़िया ने याकोबी का १४ फरवरी, १९२८ का एक पत्र प्रकाशित किया है। मेरे विचार से उक्त पत्र से सारा मामला खतम हो गया। मछली में मांस ही खाया जा सकता है। उसका सेहरा और हड्डियां नहीं खाई जा सकती। यह एक प्रयोग है जिससे व्यक्त होता है कि जिसका अधिकांश भाग परित्याग कर देना पड़े उसे नहीं लेना चाहिए। आचारांग के ये शब्द टैक्निकल शब्द हैं । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मांस अथवा मछली खाने की अनुमति थी।"१
. विचारणीय है कि जिस धर्मानुयायियों द्वारा अनजाने में भी एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय आदि जीवों की हत्या हो जाने पर उनका हृदय द्रवित हो उठता है, क्या उनके धर्म शास्त्रों में मांस-मछली खाने की अनुमति हो सकती है ? - स्वयं यूरोपियन विद्वानों द्वारा अपनी ही भूल स्वीकार किये जाने पर पुन: इस प्रश्न को उठाया धर्मानन्द कौसम्बी ने। उन्होंने ने तो जैन श्रमकों १. लैटर्स टू विजयेन्द्र सूरि पृ. २९२
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