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( ११४ ) अनन्त जन्तु के सन्तान से दूषित, नरक गति के मार्ग के लिये पाथेय तुल्य मांस का भक्षण कौन सज्जन करे।"१ .
शास्त्रों में तो यहां तक कहा गया हैमाँस-भक्षी को नरक में भारत है तलवार । खिलावे माँस उसे उसी का लेले टेश लगार ।।
ऐसा ही उल्लेख श्री भरतेश्वर वृत्ति में मिलता है-“सातों नरक में शस्त्र बिना परस्पर से की हुई क्षेत्र की वेदना है। पांच नरक में शस्त्र से और तीन में परमाधामी से वेदना होती है। महारम्भ, महापरिग्रह, गुरु अवहेलना, पंचेन्द्रिय वध और माँसाहार से जीव नारक योग्य कर्म बांधता है।"
जैन तो मांसाहार से मृत्यु श्रेष्ठ समझते हैं । इस सम्बन्ध में जैन शास्त्रों में जिनदत्त श्रावक का प्रसंग आता है। अस्वस्थ अवस्था में वैद्य उससे मांस खाने को कहते हैं इस पर जिनदत्त कहते हैं-"जलती आग में प्रवेश करना मुझे स्वीकार हैं, पर चिर संचित व्रत भन्न करना मुझे स्व कार नहीं । परिशुद्ध कर्म को करते हुए मर जाना मुझे स्वीकाय है, पर शील व्रत का स्खलन करके जीना स्वीकार नहीं है।"
उपरोक्त प्रमाणों पर एक दृष्टि डालने से मांसाहार के प्रति जैन दृष्टिकोण स्पष्ट विदित हो जाता है अब इस सम्बन्ध में और अधिक प्रमाणों की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। वर्तमानकाल में जैनो के अहिंसा सिद्धांत पर माँसाहार का दोषारोपण :
जो धर्म अपने प्रारम्भिक काल से ही अहिंसा प्रधान रहा हो उस पर वर्तमानकाल में कुछ विद्वानों द्वारा हिंसा का आरोप लगाना हमारी मति से परे है । सर्वप्रथम यूरोपियन विद्वानों ने जब जैन साहित्य पर काम करना १. वही - प्रकाश ३, श्लोक ३३
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