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( १३४ ) व्यास जी ने तो अठारह पुराणों का सार दो वचनों में ही कह दिया है-"परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।" दूसरों को पीड़ा देने वालों के लिये तो सन्त कवि तुलसीदास ने कहा है-"पर-पीड़ा सम नहीं अधमाई।"
दान के पाँच प्रकारों में अभयदान को ही प्रथम कोटि में रखा गया है, जिसका तात्पर्य है प्राणियों को मृत्यु के भय से मुक्त करना क्योंकि प्रत्येक प्राणी को जीवितव्य अत्यन्त प्रिय है और मरण अप्रिय । “भयभीत जीवात्माओं को भय मुक्त करने जैसा धर्म इस भूतल पर अन्य एक भी नहीं।"१ इसीलिये ज्ञानियों ने कहा है द्रव्य, गाय, पृथ्वी आदि का दान देने वाले दातार सुलभ हैं, अनेक हैं, पर प्राणियों को अभय देने वाले दुर्लभ हैं, अति दुर्लभ हैं, अति अल्प हैं।
दूसरे दानों का फल क्षीण हो सकता है पर अभय दान का फल कभी क्षीण नहीं होता वह तो अक्षय है।
इच्छित पदार्थ का प्रदान, प्रिय वस्तु का प्रदान, तपश्चर्या, तीर्थसेवा, श्रुताध्ययन ये सभी अभयदान की सोलहवीं कला को भी स्पर्श नहीं करते ।
तराजू के एक पल्ले में सभी धर्म एवं दूसरे पल्ले में अभयदान रखा जाय तो अभयदान का पलड़ा भारी रहेगा।
. सभी वेद, सभी यज्ञ, सभी तीर्थाभिषेक जो कार्य नहीं कर सकते वह प्राणियों की दया रूपी धर्म कर सकता है ।
जिन शासन पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के सभी जीवों को अभयदान देने की बात कहता है।
महावीर, बुद्ध, मुहम्मद, ईसा, सभी ने भाव-शुद्धि पर बल दिया है। इसके अभाव में जप-तप, व्रत-नियम, क्रिया-काण्ड सब व्यर्थ है । जैसे अंधे
१, अ. राजेन्द्र कोष प्रथम भाग पृष्ठ ७०६
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