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( १४८ ) "टूटा हुआ जीवन फिर जुड़ नहीं सकता, इसलिये प्रमाद मत करो। सचमुच वृद्धावस्था से ग्रसित पुरुष का कोई शरणाभूत नहीं होता, ऐसा चिन्तन करो। प्रमादी और इसीलिये हिंसक बने हुए विवेक शून्य जीव किसकी शरण में जायेंगे।"१
सभी धर्मशास्त्रों का गहराई से अध्ययन, चिन्तन, मनन करने पर एक ही बात स्पष्ट रूप से विदित होती है कि प्रत्येक धर्म का प्राण या हृदय अहिंसा में ही निहित है। इसीलिये वृहत्स्वयम्भू स्तोत्र में कहा गया है"अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम" यानि इस संसार के प्राणियों के लिये, साधारण प्राणियों के लिये भी और जो विशिष्ट साधक हैं, उनके भी साक्षात् परम ब्रह्म तो अहिंसा ही है। इस अहिंसा के फल का वर्णन कहां तक करें लेखनी में ही सामर्थ्य नहीं अत: अधिक न लिखते हुए हेमचन्द्राचार्य का यह कथन ही पर्याप्त होगा--"सुखदायी, लम्बी उम्र, उत्तम रूप, निरोगता प्रशंसनीयता ये सब अहिंसा के फल हैं । अधिक क्या कहें, मनोवांछित फल देने के लिये अहिंसा कामधेनू के समान है ।"२
भगवान महावीर ने "देवा वितं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो" महावाक्य कहकर अहिंसा के सुखान्त परिणाम का बड़ी सुन्दरता के साथ परिचय करा दिया है जिसका भावार्थ है “जिस व्यक्ति के हृदय में भगवती अहिंसा का वास होता है वह देव वन्दनीय हो जाता है, अहिंसा के परिपालक व्यक्ति के चरणों में देवता भी अपना मस्तक झुका देते हैं।" अतः मनुष्य अपने हृदय में यह भाव स्थापन करे
"अहिंसा प्रथमो धर्मः, सर्वशास्त्रेषु विश्रुतः यत्र जीव-दया नास्ति, तत्सर्व परिवर्जयेत"
अर्थात् सर्व शास्त्रों में अहिंसा को प्रथम धर्म कहा गया है । जहाँ जीवदया नहीं वहाँ सब कुछ व्यर्थ है।
१. उत्तराध्ययन सूत्र--अध्याय ४, गाथा १ २. योगशास्त्र--प्रकाश २, श्लोक ५२
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