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( १५७ ) प्रथम अध्याय-मुगलकाल में जैन-धर्म एवं आचार्य परम्परा, दूसरा अध्याय - अकबर की धार्मिक नीति, तीसरा अध्याय -अकबर का जैन आचार्यों एवं मुनियों से सम्पर्क तथा उनका प्रभाव, अध्याय चार-जहाँगीर की धार्मिक नीति, अध्याय पाँच-जहाँगीर का जैन सन्तों से सम्पर्क और अध्याय छ:-शाहजहाँ की धार्मिक नीति जैन धर्म से जुड़ा हुआ है।
पुस्तक लिखने में लेखिका ने सैकड़ों ग्रन्थों, प्राचीन पांडुलिपियों को अपना आधार बनाकर अपना शोध प्रबन्ध तैयार किया है।
पाठकों को पुस्तक पढ़कर ज्ञात होगा कि लेखिका ने बड़े कड़े परिश्रम से "शोध प्रबन्ध" लिखकर जैन दर्शन की मुगल शासकों के हृदयों पर छाप को प्रस्तुत किया है वह अनुमोदनीय ही नहीं अभिनन्दनीय भी है।
महाराणा प्रताप द्वारा श्री हीरविजय सूरिजी को लिखे पत्र की नकल, हस्तलिखित पांडुलिपियों के कुछ दुर्लभ पृष्ठ अंकित कर पुस्तिक की उपादेयता को विशेष रूप से बढ़ाया है। यह पुस्तक सभी जैन ग्रंथालयों, विद्वानों, जैन मुनिराजों के लिये उपयोगी और संग्रहणीय है।
हम लेखिका के साथ प्रकाशक श्री काशीनाथ जी सराक को भी धन्यवाद देंगे कि कु. नीनाजी द्वारा संग्रहित दुर्लभ साहित्यिक रत्नों को देखने के लिये आपने पुस्तक का प्रकाशन कर बहुत ही सराहनीय कार्य किया है।
श्वेताम्बर जैन, आगरा
८ जुलाई, १९९१ ७. "अकबर ने पर्युषण के दिनों में पशु वध निषिद्ध किया था।"
भारत के मध्यकालीन इतिहास में मुगलकाल की कोई तुलना नहीं। मुगलकाल में भी अकबर, जहांगीर और शाहजहाँ के शासनकाल में कला, साहित्य, दर्शन, व्यापार, भवन का निर्माण, धार्मिक सहिष्णुता आदि के
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