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उपसंहार
अहिंसा मानव जाति के उर्ध्वमुखी विराट चिन्तन का सर्वोत्तम विकास है । लौकिक और लोकोत्तर दोनों ही प्रकार के मंगल जीवन का मूलाधार अहिंसा ही है। पशुत्व से ऊपर उठने के लिये अहिंसा का आलम्बन अनिवार्य है । यही कारण है कि विश्व के सभी धर्मों ने घूम-फिर कर ही सही अन्ततोगत्वा अहिंसा का हो आश्रय लिया है। वर्तमान परिस्थितियों में भी यह हमारे लिये उतना ही उपयोगी है, उतना ही मूल्यवान है जितना कि अनादिकाल में था बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि वर्तमान काल में परिस्थितियों को देखते हुए उसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। वह पुरातन को प्राप्त नहीं हो गया है। जिसका मूल्य होता है वह कभी प्राचीन नहीं होता, उसका उपयोग सदा और सब क्षेत्रों में बना रहता है। वैदिक, जैन, बौद्ध, सिख तक कि इस्लाम और ईसाई धर्म के महापुरुषों ने भी अहिंसा के महत्व और उपादेयत्व को स्वीकार किया है। निःसन्देह सभी धर्म शास्त्रों का एक ही सार है- शांतिपूर्वक जीयो और दूसरों को जीने दो।
आज संसार विनाश के कगार पर खड़ा है । जरा सी भी भूल होने पर सारा संसार नष्ट हो सकता है। यह कहना अतिशयोक्तिन होगा कि वर्तमान परिस्थितियों में अहिंसा सिद्धान्त ही वसुधा को यथार्थ सौभाग्यशाली बना सकता है
"जीयो और जीने दो" यह सिद्धान्त अमृत का निर्झर है । पुष्करावर्त बादल है, कल्पवल्ली का तरुवर है। चिन्तामणि है रत्न, इसे पारसमणि जानो। जा-जीवन के वृक्ष मूल में, जल-सम इसको मानो ।
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