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( ११५ ) शुरू किया, उस समय आचारांग सूत्र के अनुवादक डॉ. हर्मन याकोबी ने कुछ सूत्रों का अनुवाद मांस और मछली के रूप में किया। तथापि वे इसने संयमी रहे कि किसी पर खाने का आरोप नहीं लगाया और जब उन अर्थों का जैन समाज ने विरोध करते हुए वास्तविक अर्थ प्रतिपादित किया तो उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करने में संकोच नहीं किया।
• डॉ. याकोबी द्वारा किया गया आचारांग सूत्र का अंग्रेजी अनुवाद १८८४ में प्रकाशित हुआ। जिसमें उसने “बहु अट्ठिएण मंसेण वा बहुकण्ट रण" शब्दों का अर्थ "बहुत हड्डिवाला मांस-मछली और बहुत कांटों वाला" किया है इस अर्थ के विरुद्ध याकोबी के पास इतने प्रमाण और विरोध पत्र पहुँचे कि उन्हें अपना मत परिवर्तन करना पड़ा । अपने १४-२-२८ के पत्र में उसने अपनी भूल स्वीकार करते हुए नयी मान्यता को पुष्टि की। विवादग्रस्त अंश का अर्थ इस प्रकार किया “जिस पदार्थ का थोड़ा भाग खाया जा सके और अधिक भाग त्याग कर देना पड़े, उस पदार्थ को साधू को भिक्षा रूप में ग्रहण नहीं करना चाहिए।"१ ___ याकोबी के स्पष्टोकरण के पश्चात ओस्लो के विद्वान डॉ. स्टेनकोनो ने जैनाचार्य श्रीमद् जिययेन्द्र सूरिजो को २१ मार्च, १९३६ को एक पत्र लिखा जिसका एक अंश इस प्रकार है - ___“जैनों के मांस खाने की बहुविवाद ग्रस्त बात का स्पष्टीकरण करके प्रो. याकोबी ने विद्वानों का बड़ा हित किया है। प्रकट रूप में यह बात मुझे कभी स्वीकार्य नहीं लगी कि जिस धर्म में अहिंसा और साधुत्व का इतना महत्वपूर्ण अंश हो, उसमें मांस खाना किसी काल में भी धर्म संगत माना जाता रहा होगा। प्रो. याकोबी की छोटी सी टिप्पणी से सभी बात स्पष्ट हो जाती है। उसकी चर्चा करने का मेरा उद्देश्य यह है कि मैं उनके स्पष्टीकरण की ओर जितना सम्भव हो, उतने अधिक विद्वानों का ध्यान आकृष्ट १. तीर्थंकर महावीर भाग २-आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरिजो पृ. १७९-८१
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