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( १०५ ) हजारों-लाखों माताओं, बहनों को रोना पड़े। दुर्योधन ! तुम अन्याय कर रहे हो, तुम अत्याचार पर उतारू हो। यह मार्ग ठीक नहीं है। राज्य पर पांडवों का अधिकार है। अगर तुम उनका राज्य उन्हें नहीं लौटा सकते तो पांच गाँव ही उन्हें दे दो। मैं पांडवों को समझा दूंगा और उन्हें इतने में ही संतुष्ट कर लूंगा। . अब बताइये, जिस कृष्ण के अन्त:करण से इस प्रकार के उद्गार निकले हों, उन्हें हिंसा का देवता मानना क्या उनके साथ अन्याय करना नहीं ? अन्याय और अत्याचार को रोकने का जब कोई दूसरा मार्ग न रह गया तब युद्ध का मार्ग अपनाया गया। इस दृष्टि से जैन-धर्म कृष्ण को अहिंसा का देवता ही मानता है।
यदि किसी राजा पर कोई अत्याचारी विदेशी राजा आक्रमण करता है तो क्या वह श्रावक राजा उस अत्याचारी पर अनुग्रह करके अन्याय के सामने घुटने टेक देगा ? नहीं ! जैन-धर्म इस सम्बन्ध में कहता है कि ऐसे प्रसंगों पर हिंसा मुख्य नहीं अपितु अन्याय का प्रतीकार मुख्य हैं इसीलिये देश
और धर्म दोनों की रक्षा का प्रश्न सामने होने पर देश रक्षा पर बल दिया गया है क्योंकि देश को रक्षा होने पर धर्म की रक्षा स्वत ही हो जायेगी देश न रहने पर धर्म का अस्तित्व कहाँ टिकेगा?
अतः अहिंसा का दायरा इतना संकीर्ण नहीं कि किसी को कष्ट न पहुँचाना ही अहिंसा है, बल्कि अन्याय, अत्याचार का प्रश्न उपस्थित होने पर एक अंश में निग्रह भी अहिंसा का रूप धारण कर लेता है। इसके विपरित कभीकभी अनुग्रह भी हिंसा का रूप धारण कर लेता है। उदाहरण स्वरूप एक माँ स्नेहवश बच्चे को वह चीज खाने को देती है जो उसके स्वास्थ्य के प्रतिकूल है तो यहाँ उस माँ के अनुग्रह का क्या तात्पर्य हुआ। कहने का तात्पर्य है कि हर जगह एक सी बात नहीं होती। कभी अनुग्रह निग्रह भी हो सकता है और कभी निग्रह भी अनुग्रह । मूल में वही भावना जगत की बात आ जाती है।
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