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के नाम से साधुओं के लिए है । प्रथम व्रत "अहिंसा" का हम यहाँ संक्षेप में विवेचन करेंगे।
जैन धर्मानुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिये अहिंसा व्रत का पालन करना आवश्यक है किन्तु सांसारिक मनुष्यों के लिये स्थूल अहिंसा का विधान है जिसका तात्पर्य है कि निरपराधियों की हिंसा न की जावें। जैन ग्रन्थों के अनुसार अनेक सेनाध्यक्ष अहिंसाणुव्रत का पालन करते हुए भी अपराधियों को दण्ड देते रहे हैं । उदाहरण स्वरूप जिसका गुजरात के अन्तिम सौलंकी राजा भीमदेव के समय उनकी अनुपस्थिति में राजधानी अनहिलपुर पर मुसलमानों का आक्रमण हुआ, उस समय सेनाध्यक्ष के पद पर "आन" नामक श्रीमाली वणिक था जो कि पक्का धर्माचरणी था। रानी ने उसे बुलाकर आने वाले संकट की सूचना देकर उससे निवृत्ति के लिये सलाह पूछो । सेनाध्यक्ष ने विनम्र शब्दों में कहा--यदि रानी साहिबा मुझ पर विश्वास करके युद्ध सम्बन्धि पूर्ण सत्ता मुझे सौंप देगी तो मुझे विश्वास है कि मैं अपने देश की दुश्मनों के हाथों से पूरी तरह रक्षा कर लूंगा। रानी ने उसी समय युद्ध सम्बन्धि सम्पूर्ण सत्ता उसके हाथों में सौंपकर युद्ध की घोषणा कर दी। सेनाध्यक्ष आभू ने सैनिक संगठन कर लड़ाई के मैदान में पड़ाव डाल दिया। सेना की व्यवस्था करते समय शाम हो गई। वह व्रतधारी श्राबक था अत: दोनों समय प्रतिक्रमण करने का उसका नियम था। अत: संध्या होते ही कहीं एकांत में जाकर प्रतिक्रमण करने का निश्चय किया, लेकिन युद्ध स्थल छोड़ने पर सेना में विश्रंखला होने की सम्भावना थी। अत: अन्यत्र जाने का विचार छोड़ हाथो के हौदे पर हो बठे बठे प्रतिक्रमण प्रारम्भ कर दिया जिस समय वह प्रतिक्रमण में आये हुए "जे में जीवा विराहिया एगिदिया, * मन, वचन व काया से सूत्रों को आदर भाव से बालकर किये दुष्कृत्यों
का पश्चाताप द्वारा विसर्जन करना। फिर से ऐसी भूलें न हों, ऐसी भावना का संकल्प करना।
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