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पंच- प्रतिक्रमण अतिचारों* में एक अतिचार आता है "हँसी, मशकरी नहीं करना" अचानक ही दिमाग में प्रश्न पैदा हुआ कि जन धर्म तो हँसी-मजाक को भी मना करता है इसका अर्थ तो यह है कि मिट्टी के बुत बने बेठे रहो किसी से कुछ कहो ही मत । कई बार सोचती कि ऐसा क्यों लिखा गया है ? एक बार एक गुरुदेव से पूछ ही लिया, गुरुदेव बोले ठीक ही तो है - द्रोपदी ने दुर्योधन से मशहरी ही तो की थी कि “अन्धे के पुत्र अन्धे" और इसी पर महाभारत हुआ । कहने का तात्पर्य है कि तीर्थंकरों के उपदेश तो सारगर्मित हैं, हम उन्हें समझ में अपनी बुद्धि - विवेक का उपयोग कहाँ तक करते हैं ये हमारे ऊपर निर्भर करना है । यही कारण है कि जो बात बुद्धि परे हो उस विषय में अनर्गल बातें दिमाग में आती हैं ।
यूँ तो प्राणों की हिंसा का पाप पग-पग पर तैयार है। गृहस्थ की बात छोड़िये साधू लोग भी इससे नहीं बच पाते। आहार - बिहार करने, बोलने, उठने-बैठने आदि हर क्रिया में कुछ न कुछ प्राण हानि का पाप आवश्य होता है, उससे बच नहीं सकते । इसी बात से परेशान होकर शिष्य भगवान पूछता है—
से
"हे भगवन ! जीव किस प्रकार से चले किस प्रकार से खड़ा हो ? किस प्रकार से बैठे ? किस प्रकार से सौवे ? किस प्रकार से भोजन करे ? और किस प्रकार से बोले ? जिससे कि उसे पापकर्म का बन्ध न हो ।" १
इसके उत्तर में भगवान कहते हैं
*
जैन धर्म श्रावक-श्राविकाओं के लिये जिन कार्यों का निषेध किया गया है उन कार्यों को जाने-अनजाने में करने पर जो भी दोष लगा हो, उनके लिये क्षमा माँगना ही अतिचार कहलाता है ।
१, कहंचरे कहंचिट्ठे, कहमासे कहं सा
कहं भुजं तो भासतो, पावकम्मं न बंधइ ||७|| दशवैकालिक सूत्र - अध्याय ४
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