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। ८७ ) साधू जीवों के मध्य में विचरण करता हुआ भी पाप में लिप्त नहीं होता क्योंकि उसके अन्त:करण से करूण का अखण्ड स्रोत प्रवाहित होता रहता
___ शास्त्रों में तो यहां तक कहा गया हैकि यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने से पाप का स्पर्श तो होता ही नहीं बल्कि पूर्व के बँधे हुए कर्मों का क्षय भी होता है। गीतार्थ साधक के द्वारा यतमान रहते हुए भी यदि कभी हिंसा हो जाती है तो वह पाप कर्म के बँध का कारण न होकर निर्जरा का कारण होती है क्योंकि बाहर में हिंसा हुए भी यतनाशील के अन्दर भाव-विशुद्धि रहती है, फलतः वह कम निर्जरा का फल अर्पण करतो है।"१ .
“कोई मुनि ईर्यासमिति पूर्वक यत्न से गमन करते हों और उनके पैर के नोचे कोई उड़ता हुआ जीव वेगपूर्वक आ गिरे तथा मर जाये तो मुनि को उसकी हिंसा नहीं लगती । बाह्य दृष्टि से देखा जाये तो हिंसा हुई है परन्तु मुनि के हिंसा का अध्यवसान नहीं होने से उन्हें बँध नहीं होता।"२ ___स्पष्ट है कि मन में अहिंसा का सागर लहरें मार रहा हो, कषाय भाव नहीं हों, जागरूकता हो फिर भी यदि शरीर से हिंसा हो रही हो; मार नहीं रहे हैं, सिर्फ मर रहे हैं ऐसी परिस्थितियाँ जहाँ होंगी वहाँ केवल द्रव्य-हिंसा होगो, भाव -हिंसा नहीं । जैन धर्म मुख्यत: हिंसा की वृत्ति को छोड़ने के लिये हो कहता है । इसी बात का स्पष्टीकरण आचार्य शिरोमणि भद्रबाहुस्वामी ने इस प्रकार किया है “अहिंसा और हिंसा के सम्बन्ध में यह निश्चित सिद्धांत है कि आत्मा हो अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा। जो आत्मा विवेकी है,सजग है, सावधान है अप्रमत्त है वह अहिंसक है और जो अविवेकी है, जाग्रत एवं सावधान नहीं है, प्रमाद भाव में पड़ा है, वह हिंसक है ।"३
१. ओधनियुक्ति, श्लोक ७५९ २. समयसार-बँध अधिकार प्रष्ठ ४२३ ३. ओधनियुक्ति, श्लोक ७५४
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