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( ८५ ) ३. द्रव्य हिंसा भी हो और भाव हिंसा भी हो। ४. न द्रव्य-हिंसा हो और न भाव-हिंसा हो।
यहां इनका विश्लेषण भी आवश्यक है अत: अब हम क्रमश: इनका विश्लेषण करेंगे।
१. भाव हिंसा हो, द्रव्य हिंसा न हो :
मन में हिंसा के विचार पैदा होना और अपने जीवन के दुर्गुणों एवं वासनाओं के द्वारा अपने सद्गुणों को बर्बाद कर लेना ही भाव-हिंसा कहलाता है किन्तु इससे दूसरे का कुछ अनिष्ट नहीं होने पाता अत: द्रव्य हिंसा नहीं होने पाती। इस प्रकार की हिंसा को समझने के लिए तंदुलमच्छ का प्रसिद्ध उदाहरण जैन ग्रन्थों में आता है।
बड़े-बड़े समुद्रों में हजार-हजार योजन के विशालकाय मच्छ मुंह खोले पड़े रहते हैं । उनके श्वांस खींचने और छोड़ने के साथ ही हजारों मछलियां उनके पेट में चली जाती हैं और बाहर निकल जाती हैं इस तरह प्रत्येक श्वास के साथ हजारों मछलियाँ अन्दर आती और बाहर जाती हैं । आचार्यों का कहना है कि ऐसे किसी मच्छ की भौंह अथवा कान के ऊपर वह तन्दुल मच्छ रहता है जिसकी अवगाहना चावल के बराबर होती हैं उसके सिर, आँखें, कान, नाक, शरीर और मन सहित सभी इन्द्रियाँ हैं । जब वह विशाल. काय महामत्स्य को भौंह अथवा कान पर बैठा यह दृश्य देखता है तो मन में विचारता है कि ओह ! इतना भीमकाय यह मच्छ, कितना सूर्ख और आलसी है इसे जीवन का होश नहीं, कितनी मछलियाँ आई और यों ही चली गयीं। काश ! मुझे ऐसा शरीर मिला होता तो मैं एक को भी न छोड़ता । किन्तु जब मछलियों का प्रवाह आता है तो वह सिमक जाता है, डर जाता है कि कहीं मैं झपट्ट में न आ जाऊँ, मर न जाऊँ । कुछ न करने पर भी केवल विचारों से ही अपनी हजारों जिन्दगियां बर्बाद कर लेता है। अन्तर्मुहूर्त भर की
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