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( ८३ ) उसका अनिष्ट न कर सकें तब भी हम हिंसक ही समझे जायोंगे । कहा भो है कि
"प्रमाद से युक्त आत्मा पहले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है इसके बाद दूसरे प्राणियों का वध होवे या मत होवे ।"१
निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि किसी के द्वारा किसी जीव का मर जाना अपने आप में हिंसा नहीं है किन्तु क्रोध, मान, माया; लोभ यदि मन में हो और मारने की दुर्वृत्ति के साथ जीवों का मारा अथवा सताया जाये तो हिंसा होती है अर्थात् हिंसा का मूल आधार कषाय भाव हैं ! शास्रों में भी हिंसा का स्वरूप इस प्रकार बताया है
"प्रमत्तयोग से प्राणों का विनाश करना हिंसा है ।"२। यद्यपि प्राणों का विनाश हिंसा है पर वह प्रमत्तयोग अर्थात् राग-द्वेष प्रवृत्ति के कारण ही तभी हिंसा है अन्यथा नहीं। आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने भी ओघनियुक्ति में कहा है— 'अहिंसा और हिंसा के सम्बन्ध में यह निश्चित सिद्धांत है कि आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है । जो आत्मा विवेकी है, सजग, सावधान, अप्रमत्त है वह अहिंसक है और जो अविवेकी, सुप्त, असावधान एवं प्रमाद में पड़ी है, वह हिंसक है ।"
वास्तव में देखा जाये तो हिंसा और अहिंसा का रहस्य मनुष्य की मनोभावना पर अवलम्बित है । जिस भाव से प्रेरित होकर मनुष्य जो कर्म करता है उसी के अनुसार उसे उसका फल मिलता है। कर्म की शुभाशुभता उसके स्वरूप पर नहीं प्रत्युतकर्ता की मनोभावनाओं पर निर्भर है। स्पष्ट है कि जो
१. स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् ।
पूर्व प्राण्यन्तराणान्तु पश्चात्स्याद्वान वा वधः ।। सवार्थसिद्धि-पृष्ठ ३५२ २. "प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा"
तत्वाथ सूत्र अध्याय ७, श्लोक ८
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