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बहुफलदायक है । " १ जैनाचार्य श्रीमद् विजय धर्म सूरि जी ने इस अर्थ का प्रतिकार इस प्रकार किया है - " इस श्लोक का अर्थ यदि यही रखा जाये कि माँस खाने, मद्य पीने और मैथुन सेवन से दोष नहीं है तो इस श्लोक का पूर्वार्द्ध उत्तरार्द्ध से संघटित नहीं हो सकेगा क्योंकि उत्तरार्द्ध में तो निवृत्ति बहुत फल वाली दिखलाई । लेकिन यहाँ विचार करने विषय है कि यदि प्रवृत्ति में दोष न होता, तो निवृत्ति में महाफल होता ही कैसे ? अर्थात यदि प्रवृत्ति सदोष ठहरेगी तब ही तो निवृत्ति में महाफल सिद्ध हो सकेगा ? लेकिन यह बात इस श्लोक में तब ही निकाल सकते हैं- सिद्ध कर सकते हैं - कि जब इसका अर्थ वास्तविक - जैसा चाहिये वैसा किया जाये । अर्थात इसका अर्थ यों किया जाये - 'न माँस भक्षणे दोषो' इस पदमें मांस भक्षणे' और 'दोषो' इन दो शब्दों के बीच में 'अ' कार का लोप हुआ है ( ' एदोत: पदान्तेऽस्य लुक' सिद्धहेम, १-२ - २७)
अब इसका अर्थ यही होगा कि - 'माँस भक्षण में अदोष नहीं किन्तु दोष ही हैं। वैसे मद्य में भी अदोष नहीं किन्तु दोष ही है और मैथुन में भी अदोष नहीं किन्तु दोष ही है, क्योंकि प्राणियों की अज्ञान जन्म प्रवृत्ति है. यदि निवृत्ति करे तो महाफल है। यह तो इसका वास्तविक अर्थ । परन्तु यदि प्रवृत्ति में दोष नहीं है, किंतु निवृत्ति में फल है. ऐसा अर्थ किया जाय तो यह अर्थ किसी बुद्धिमान को जगा ही नहीं ।"२
इसी प्रकार "पशुपुष्पैश्च गंधेश्च" पशु-पुष्प-गंध करके माता की पूजा करनी चाहिये | ऐसा दुर्गासप्तति में कहा है इसका समाधान भी आचार्य श्री जी ने इस प्रकार किया " जैसे पुष्प की पूजा, अखण्ड पुष्प चढ़ाकर करते हैं ( अर्थात् पुष्प की पत्तियाँ अलग-२ नहीं कर देते हैं) जैसे ही पशु से भी पूजा करनी चाहिये अर्थात माता के सामने उस पशुको अभय कर देना चाहिये । " ३ १. न माँस भक्षणे दोषो न मद्य े न च मैथुने ।
प्रवृत्ति रेषा भूतानां निव त्तिस्तु महाफला ।। ५६ ।। अध्याय ५ आदर्श साधू (श्री विजय धर्मसूरि जीवन वृत्त)- मुनि श्री विद्या विजयजी ३. वही पृ० ४७
२.
पृ० ४६
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