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( ७४ ) नहीं करना चाहिये । तिस्य पुर्न वसु और चातुर्मासों की पूर्णिमाओं को और चातुर्मास्यों की पूर्णिमाओं के दूसरे दिन घोड़े व बैल को नहीं दागना चाहिये। अपने राज्याभिषेक के २६वें वर्ष में मैंने २६ बंदियों को छोड़ दिया है।"
बौद्ध धर्म का प्रथ्वो भर में इतनी शीघ्रता से फैलने का का कारण बुद्ध भगवान के सिद्धांतों को पवित्रता और सदाचार हैं। प्राणि-हिंसा निषेध के साथ-साथ बुद्ध ने सिंह, गाय आदि महाचर्मों के धारण का निषेध किया है। जिस समय एक दुराचारी भिक्षु-दुराचारी उपासक के घर आकर गाय के बच्चे का चर्म मांगता है, उपासक बछड़ा मारकर चर्म धून कर भिक्षु को देता है, बछड़े की माँ भिक्षु का पीछा करती है । अन्य भिक्षुओं को घटना का पता चलने पर वे सोचते हैं कि भगवान ने तो अनेक प्रकार से प्राणि-हिंसा की निन्दा और प्राणि-हिंसा त्याग की प्रशंसा की है वे भगवान से इस विषय में जिक्र करते हैं तो भगवान भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहते हैं
"भिक्षुओ ! प्राण-हिंसा की प्रेरणा नहीं करनी चाहिये । जो प्रेरणा करे उसका धर्मानुसार (दंड) करना चाहियो, भिक्षुओ ! गाय का चाम नहीं धारण करना चाहियो, जो धारण करे उसे दुक्कट का दोष हो। भिक्षओ ! कोई भी चर्म नहीं धारण करना चाहिये, जो करे उसे दुक्कट का दोष हो । भगवान ने तो गायों की सींग, कान, पूछ पकड़ना और उसकी पीठ पर बैठने पर भी दुक्कट का दोष बताया है।"१
मांसाहार के प्रति बुद्ध का इष्टिकोण :
यद्यपि बुद्ध ने नैदिक हिंसक यज्ञों का विरोध कर अहिंसक यज्ञों की ही प्रशंसा को । जीव-हिंसा का निषेध कर अहिंसा धर्म पालन करने का उपदेश ही भिक्षुओं व गृहस्थों को दिया, लेकिन मांसाहार के प्रति बुद्ध की प्रवृत्ति इसके विपरित जान पड़ती है, जिसका प्रमाण बौद्ध ग्रंथ ही हैं । १. विनय पिटक-चर्म स्कंधक हिन्दी अनुवादक -राहुल सांकृत्यायन
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