________________
( ७९ )
मद्दव को खाकर पचा सके अतः शेष रहे सूकर मद्दव को गड्डा खोदकर उसमें डाल दो ।"१
यदि हम इस विवाद में न भी पड़े तथापि इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि बौद्ध धर्म में तीन कोटि से परिशुद्ध मांस की अनुज्ञा है और बुद्ध के आहार से भी इसका सम्बन्ध रहा है क्योंकि महावग्ग में वर्णित साढ़े बारह
भिक्षुओं के साथ बुद्ध के माँस खाने की घटना को नकारा नहीं जा सकता, शायद यही कारण है कि बौद्ध धर्मानुयायी चीन और जापान माँस भक्षो देशों की गणना में सबसे आगे हैं । समाचार पत्रों से भी ऐसा विदित होता है कि वे लोग आहार के नाम पर किसी जीव को नहीं छोड़ते । वे सर्व भक्षी के साथ साथ सर्प भक्षी भी हैं। वे तो अपनी इच्छा तृप्ति के लिये कृत्रिम उपायों से मलिन वस्तुओं में कीटादि उत्पन्न करते हैं । इसके लिये वे शायद यही तर्क दें कि भगवान ने माँस-भक्षण की छूट दी है क्योंकि सुत्तनिपात में भी प्राणियों की हत्या को दोषपूर्ण बताते हुए मांस भक्षण को पाप नहीं कहा है ।
-
इन देशों में अहिंसा के नाम पर एक और बड़ी विचित्र धारणा है जिसे डॉ. रघुवीर ने अपने लेख : "जापान में बुद्ध - अहिंसा - सिद्धांत का परिपालन" शीर्षक लेख मार्डन रिव्यू फरवरी १९३८ प्रष्ठ १६५ पर बताया था कि जापानी लोग चेरी नामक वृक्ष की लकड़ियों को खुदाई के काम में लाते हैं इसलिये टोकियों में उनकी आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना की जाती है। टूटी हुई पुतलियों तथा सुइयों में आत्मा का सद्भाव स्वीकार करके उनकी शाँति निमित्त बुद्ध देव से अभ्यर्थना की जाती है जिन-जिन जानवरों को जापानी लोग खा जाते हैं उनकी शांति निमित्त वे प्रार्थना करते हैं ।
मनुष्य माँस की आज्ञा तो हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुकूल ही बुद्ध ने भी नहीं दी । जब सुप्रिया उपासिका एक रोगी भिक्षु के स्वस्थ होने के लिये अपना माँस देतो है, क्योंकि उस दिन तैयार माँस मिला नहीं । बुद्ध को पता
१. उदानं - चुन्द सुत्त पृ० ८५
Jain Education International
!
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org