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( ४६ ) अहिंसा के वास्तविक अर्थ को समझने में असमर्थ होने के कारण ही हमारा राष्ट्र रसातल में गिरा। पहले हम यवनों के गुलाम बने और फिर अंग्रेजों के।
जब मेहमूद गजनवी ने सोमनाथ के मंदिर पर आक्रमण किया । तब हजारों ब्राह्मण शिव-शिव जाप करते रहे, किन्तु शस्र उठाकर आततायी का मुकाबला करने का साहस न जुटा पाये, जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि यवनों ने लाखों व्यक्तियों को मौत के घाट उतारा, निरीह स्त्री व बच्चों पर अत्याचार किये लाखों का धर्म भ्रष्ट किया, भारत को दासता की जंजीरों से जकड़ दिया। अहिंसा के वास्तविक अर्थ को न समझने का यह दुष्फल आया हमारे सामने।
अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी ने भी कहा है कि “कायरत को हम अहिंसा नहीं कह सकते। जिस अहिंसा से सौ गुनी हिंसा पैदा हो उससे हमारा काई प्रयोजन नहीं। यदि दुष्ट, चोर अथवा डाकू हमारे घर आकर हमारा सामान उठाकर ले जाना चाहता है अथवा हमारी बहू-बेटियों को कुद्दष्टि से देखता है या हमें मार्ग में सताता है और हम उसे हिंसा के डर से कुछ नहीं कहते तो हम उसकी हिंसा-वृत्ति को प्रोत्साहन देकर उसे और भी अधिक हिंसक बनाते हैं तो क्या यह अहिंसा है या हिंसा?" नि.संदेह इसे हम हिंसा ही कहेंगे।
जिस गांधी ने अहिंसा के बल पर भारत को दासता की बेड़ियों से मुक्त कराया उसी गाँधीके अनुयायियों को आततायी कबाइलियों से निरीह कश्मीर की रक्षा के लिये भारत की सैन्य शक्ति का प्रयोग करना ही पड़ा। यहां प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सैनिक शक्ति के प्रयोग से जो शत्रु-संहार हुआ क्या वह हिंसा नहीं कहलायेगा ? उत्तर नकारात्मक ही होगा क्योंकि न्याय की रक्षा के लिये की गई हिंसा-हिंसा नहीं कहलाती।
यहाँ अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के ये शब्द विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं-"मुझे युद्ध से घृणा है और में उससे बचना चाहता हूँ।
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