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दस हजार सुवर्ण पादों के साथ एक हजार गायों की दक्षिणा स्वीकार करता है । बुद्ध ने तपश्चर्या के साथ यज्ञ करने को दुगुना दुखदायी बताया है । कन्दकर सुत्त में उन्होंने जो चार प्रकार के मनुष्यों का वर्णन किया है उनमें तीसरे प्रकार के मनुष्य यज्ञ करने वाले हैं जो 'अत्तन्तपो चपरन्तपो च ग्लो' अर्थात् जो अपने को भी कष्ट देते हैं और दूसरे को भी । इस सुत्त में इस प्रकार के मनुष्यों के बारे में भगवान ने इस प्रकार कहा है
भिक्षुओ आत्मन्तप और परन्तप मनुष्य कौन सा है ? कोई क्षत्रिय राजा या कोई श्रीमान् ब्राह्मण कोई एक नवीन संस्थागार बनाता है और मुंडन कराके खराजिन ओढ़कर शरीर पर घी तेल चुपड़ता है और मृग के सींग से पीठ खुजलाता हुआ अपनी पत्नी तथा पुरोहित ब्राह्मण के साथ उस सँस्थागार में प्रवेश करता है। वहाँ वह गोबर से लिपी हुई भूमि पर कुछ भी बिछाये बिना सोता है। एक अच्छी गाय के एक अच्छे थन के दूध पर वह रहता है। दूसरे थन के दूध पर उसकी पत्नी रहती है तोसरे से पुरोहित और चौथे से होम करते है । चारों थनों से बचे दूध पर बछड़े को निर्वाह करना पड़ता है ! आगे यज्ञ के समय कहता है मेरे इस यज्ञ के लिये इतने बैल मारो बछड़े, भेड़े बकरे मारो। यूपों के लिये इतने वृक्ष काटो, कुशआसन के लिये इतने दर्भ काटो । उसके दास, दूत एवं कर्मकार दंड के भय से भयभीत हो आँसू बहाते हुए रोते-रोते काम करते हैं। इसे कहते हैं – आत्मन्तप और
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परन्तप । १
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विचारणीय है कि कठोर तपश्चर्या के साथ-साथ यज्ञ में निर्दोष पशुओं को होम करने पर क्या उसे तपस्या का सुफल ही मिलेगा, पशुओं को होम करने का दुष्फल नहीं ? या कि तपस्या का पुण्य उसे प्राणि दोष से मुक्त करा देगा ? साधारण जन भी सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि पाप-पुण्य को भी यदि एक ओर रख दिया जाये तो भी एक ही यज्ञ में पाँच-पाँच सौ अथवा
१. माज्झिमनिकाय पालि भाग - २
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