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बौद्ध धर्म ग्रंथ एवं अहिंसा
लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत में महान धार्मिक क्रांति हुई, जिसके प्रवर्तक थे भगवान महावीर एवं महात्मा गौतम बुद्ध । लेकिन विषयान्तर्गत यहां हम केवल महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म के विषय में ही विचार करेंगे।
, बुद्ध के समय भारत की दशा बड़ी विचित्र थी। प्राचीन नैदिक धर्म निरन्तर पतन के गर्त में गिर रहा था। ऋषि-मुनियों द्वारा प्रचलित विधिविधानों में भयंकर विकृति आ चुकी थी। यज्ञोंमें प्रतिदिन सहस्रों मूक पशुओं को होम किया जाता था। गौतम का हृदय इन अमानुषिक अत्याचारों को सहन न कर सका । उन्हें दूर करने के लिये राजपाट को लात मार बोध गया में बोधि द्रम की छाया में सत्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए समाधिस्थ हो गये। बद्धत्व प्राप्त कर सारनाथ नामक स्थान से 'धर्म चक्र प्रवर्तन' करते हए अपने पाँच शिष्यों को विश्व कल्याण की भावना से प्रथम उपदेश इस प्रकार दिया
- "भिक्षुओं अब तुम लोग जाओ और बहुतों के कुशल के लिए संसार पर दया के निमित्त देवताओं और मनुष्यों की भलाई, कल्याण और हित के लिए भ्रमण करो। तुम उस सिद्धांत का प्रचार करो जो आदि में उत्तम है. मध्य में उत्तम है और अंत में उत्तम है। सम्पन्न, पूर्ण तथा पवित्र जीवन का प्रचार करो ।' यज्ञों का निषेध :
सर्व प्रथम हम वैदिक काल में होने वाले हिंसामय यज्ञों के प्रति बुद्ध के दृष्टिकोण को देखें तो केवल एक ही दृष्टांत से स्पष्टीकरण हो जाता है कि
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