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( ५६ ) कहा-मांस खाना घोर पाप है, इसके खाने से तो लोक-परलोक बिगड़ जाता है । तब गुरूजी ने माँस की परिभाषा देकर उसे इन शब्दों में समझाया कि माँ के गर्भ से लेकर मरने तक मांस के साथ किस प्रकार सम्बन्ध रहता है
पहिला मासहु निमिआ मास अदरि वासु । जीउ पाई मासु मुहि मिलिआ हड चमु तनु मासु ॥ मारहु वाहरि कढिा मसा मासु गिरास । मुहु माँसै का जीभ माँस की माँसै अदरि सासु ॥ वडा होभा वी आहिआ धरि ल आइमा मासु । मासहु ही मासह ऊपजै मासहु सभी साक ।। . सतिगुरि मिलिए हुकमु वुझीए तां को आवै रासि ।
आपि छूटे नहीं छूटीए नानक बनि विणासु ॥१ प्रस्तुत पुस्तक में इसी फुटनोट में कहा गया है कि इसका यह भाव नहीं कि गुरूजी ने माँस खाना ठीक या जरूरी बताया। भाव यह है कि जो पुरुष दूसरों को लूट-लूट कर खाता है और अत्याचार करता है उसका यह कहना कि मांस खाना जीव हत्या है, पाखण्ड और धोखा है । सच्चा वैष्णव वही है जो किसी प्रकार भी किसी का हृदय नहीं दुखाता।
__ शुद्ध एवं सात्विक भोजन पर बल देते हुए गुरू ग्रंथ साहब में कहा गया है-“कपड़े पर खून का दाग पड़ने से शरीर अपवित्र माना जाता है तो यही खून पेट में जाने से चित्र निर्मल कैसे हो सकता है ।"२
अत्याचारी मुगल शासकों के राज्यकाल के गुरुगोविन्दसिंह जी को स्वतः क्वचित माँसाहार करने की और इस तरह सिखों को वैसा आहार करने की आवश्यकता पड़ी होगी, परन्तु इसे सर्वकालिक छूट मानकर लोग आज उसका १. श्री गुरूनानक देवजो-सोढी तेजा सिंघ जी पृष्ठ ५९ २. जे रत्त लग्गे कप्पड़े, जामा होय पलीत्त ।
जे रत्त पीवे मानसा, तिन कियो निर्मल चित्त ।। पृष्ठ १४०
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