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( १३ )
जैसा क मनु कहते हैं- "माँस को उत्पत्ति अर्थात शुक्र शोणित का परिणाम ही माँस है, ऐसा तथा जीव हत्या के समय वध-बन्ध से होने वाला दु:ख, उसका आर्त्तनाद इत्यादि जान करके सब प्रकार के माँस से निवृत्त होना चाहिये ।"१
यहाँ सर्व शब्द से विधि - अविधि दोनों प्रकार के माँस का निषेध समझना चाहिये क्योंकि जो वस्तु अग्राह्य होती है वह अग्राह्य ही रहती है । माँस भी मनुष्य जाति की स्वाभाविक खुराक न होने से हर परिस्थिति में त्याज्य ही है । विधि युक्त अथवा अवधि युक्त किसी प्रकार का माँस खाना मनुष्य के लिये योग्य नहीं । क्योंकि मनु कहते हैं-" प्राणियों की हिंसा किये बिना माँस उत्पन्न नहीं होता और प्राणियों का वध स्वर्ग सुख को देता नहीं अतः माँस खाना सर्वथा छोड़ देना चाहिये ।"२
मत्स्याहारी सर्वभक्षी :- जो लोग मत्स्याहार करते हैं वे मत्स्य के मारे बिना तो माँस प्राप्त कर नहीं सकते । विचार करने पर विदित होता है कि मछली, पल्ला आदि जल में होने वाले जीवों को खाने वाले मनुष्य के हृदय में निष्ठुरता बहुत ही हो जाती है क्योंकि मछली का जीव इतना कठोर होता है कि वह तुरन्त शरीर से अलग नहीं होता। ऐसे जीव को निर्दयतापूर्वक मारने वाले, पकाने वाले और खाने वाले का हृदय कितना कठोर होता होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । यह भी सत्य हैकि जो मछली, पल्ला आदि जीवों को खाने वाले हैं वे न केवल उन्हीं को खाते हैं अपितु समस्त तुच्छ वस्तुओं के भक्षक हैं । मत्स्य भक्षण का निषेव मनु ने इस
१ समुत्पत्ति च माँसस्य वध बन्धौ च देहिनाम् । प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्व माँसस्य भक्षणात् ॥ ४९ ॥ मनुस्मृति अध्याय ५
२. नाकृत्वा प्राणिणां हिंसां मासमुत्पद्यते क्वचित । न च प्राणि वध: स्वयंस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत ॥ ४८ ॥ मनुस्मृति अध्याय ५
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