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कितने दुःख की बात हैं कि वसु राजा 'यज्ञ के योग्य उत्तम पशुओं को करके यज्ञ करना चाहिये' इस वचन के कहने मात्र से ही अधोगति को प्राप्त हुआ। तो जो लोग वेदशास्र और धर्म के नाम से दीन, अनाथ, निशधार बकरे गाय. घोड़े आदि पशुओं को यज्ञ में हवन करके निर्दय होकर यज्ञ शेष को खाते हैं अथवा खाते थे उनकी क्या गति होती होगी अथवा हुई होगी? ___विष्णु पुराण के छठवें अंश में जहाँ नरक यंत्रणा का वर्णन हैं वहाँ स्पष्ट लिखा है कि जो माँस भोगी होता है, वह मरण के पीछे विष्ठा और मूत्र का जहाँ भोजन है, उस विण्मूत्र नामक नरक में जाता है। ___मांस-भोजी मनुष्य अपना बचाव करने के लिये पशुओं की हिंसा करने में धर्म की आड़ आगे लगाते हैं । यदि यह हिंसा उचित होती तो उद्दालक, आरूणि, श्वेतकेतु, आरूणेय, सप्तकेतु, जाबाल, दप्त और नालाकि आदि जो उस काल के महापुरुष हुए हैं वे इस व्यर्थ के प्राण-दंड के विरूद्ध आवाज न उठाते । भगवतशरण उपाध्याय लिखते हैं - "मुण्डक उपनिषद (१,२,७) में तो क्रियात्मक यज्ञकर्ताओं को मूर्ख तक कहा गया है। बृद्धारण्यक तो यज्ञ करने वालों को देवताओं के पशु कहता है।"
वास्तव में देव-देवियों का नाम आगे करके बलिदान के नाम बेचारे मूक व निर्दोष पशुओं का संहार कितना ऋ र कृत्य है । यह भी विचारणीय है कि जो लोग बलिदान करते हैं उनकी मान्यता होती है कि देवी-देवता प्रसन्न होकर उनकी मनोकामना पूरी करेंगे किन्तु उनकी यह मान्यता नितांत भ्रमपूर्ण है क्योंकि देवी, जो जगत के समस्त प्राणियों को माता है उसका भाव अपने समस्त प्राणियों के प्रति वात्सल्य युक्त है। ऐसी स्थिति में उन्हीं पुत्रों को निर्दोष पशुओं को) उसके सामने ले जाकर उसी के नाम से वध करना कितनी क्रूरता और तुच्छता का कार्य है । क्या देवी के समक्ष उसी के पुत्रों को ले जाकर बलि देने से देवी कभी प्रसन्न हो सकती है ? नीतिकार तो यहाँ तक कहते हैं१. प्राचीन भारत का इतिहास पृ० ५७
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