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ऋचाओं में से अपने लिये सुरक्षित मार्ग निकाल लिया । धर्म की आड़ में स्वयं को बचा लिया। इतना होने पर भी वे ही ऋषि अहिंसा की प्रशंसा करने में मूक नहीं रह सके । रह भी कैसे सकते थे ? क्योंकि इस सत्य को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि करूणा का स्त्रोत प्राणि मात्र के हृदय में स्वाभाविक गति से बहता है ।
धर्मोपदेशकों को स्वार्थी भावना :- वैदिक युग में स्वर्ग प्राप्ति के लिये लोगों को स्वार्थी विप्र वर्ग पशुओं की बलि करने का मार्ग बताता था । इससे स्वार्थी व्यक्तियों ने मिथ्यात्ववश अपना भविष्य उज्जवल मान अगणित पशुओं का संहार किया। चौलुक्यवंशी राजा कुमारपाल के समय में भी धर्म के नाम पर यज्ञ में पशुबलि दी जाती थी । एक बार पूर्व परम्परा का कारण बताते हुए नवरात्रि में देवी के आगे बलि देने के लिये कुमारपाल को स्वार्थी पंडों ने मजबूर किया । राजा कुमारपाल पर जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र सूरिजी का क्या प्रभाव था, यह बताने की आवश्यकता नहीं । आचार्य श्री को सम्मति से इस कुप्रथा के नाश के लिये राजा ने देवी के मंदिर में जीवित बकरे डलवा - कर दरवाजा बन्द करवा दिया। यदि वास्तव में देवी बलि चाहती होगी तो रात को इनमें से इथेच्छ ग्रहण कर लेगी, किन्तु प्रात काल दरवाजा खोलने पर सभी बकरे जीवित पाये गये तो पंडों के स्वार्थ का भंडा फूट गया । राजा ने धर्म के नाम पर बलि प्रथा का निषेष कर दिया ।
धर्मोपदेशकों द्वारा धर्मोपदेश सुनने को राजाओं की प्रवृत्ति प्राचीन समय से ही है उन्हीं उपदेशों से वे अपने कर्त्तव्यों को समझते थे और उपदेशकों को यथोचित पुरस्कार देते थे । यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि इन पंडितों की जीविका का साधन राजा की खुशामद करना था । सच्चा उपदेश देने के बजाय अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये उनकी हाँ में हाँ मिलाते । राजाओं की मनोदशा के अनुकूल यही फरमाया- "महाराज ! अयं तु राज्ञां धर्मः" अर्थात् महाराज ! यही राजाओं का धर्मं है । राजाओं ने भी अपना विवेक खोकर, धर्म-अधर्म का निर्णय न करके खुशामद को ही धर्म समझ लिया ।
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