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( ४२ ) यह था गांधीजी के सपनों का भारत । जिस देश को उन्होंने अहिंसा के बल पर आजाद कराया, उस देश में हिंसा का यह कैसा ताण्डव ?
पशु-संहार से भोजन में पौष्टिक तत्वों की कमी के साथ ही ऊनी कपड़े अथवा कम्बलों का भी अभाव हो रहा है। भेड़ों तथा बकरों के बालों की बनी हुई ऊँची कम्बलों का आज नाम नहीं। पशमीने की चादरें और हाथ निर्मित गरम कम्बलों का नितान्त अभाव हो गया है। इन सब दुःखों का मूल कारण क्या है ? पशु-वध ! और पशु-वध का मूल कारण है ? मांसाहार ! यदि हमें पृथ्वी की हरी-भरी चादर की रक्षा करनी है तो सर्व प्रथम मांसाहार को त्याग कर पशु-धन को सुरक्षित रखना होगा शेष सब बातें तो बाद की है।
आत्मरक्षार्थ हिंसा-हिंसा नहीं हिंसा शब्द का अर्थ प्रायः किसी के प्राण लेने से ही लिया जाता है किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है । मन, वच, काया से किसी को पीड़ा पहुँचाना भी हिंसा का ही रूपान्तर है। अतः प्राणियों के प्राणों के वियोग करने मात्र को हिंसा समझना अयुक्त है । मानवता का सच्चा पुजारी तो किसी प्रकार की भी हिंसा नहीं करता। अहिंसा का क्षेत्र इतना विशाल है कि इस पर पूर्ण रूप से चलना छुरी की धार पर चलने के समान । बड़े-बड़े संत महात्मा भी सब सुख ऐश्वयं का त्याग करके इस महाव्रत का पालन करने में अनेक विघ्न बाधाओं का सामना करते हैं । बैरिस्टर सावरकर लिखते हैं
हिंसा और अहिंसा के कारण दुनियां चलती है । अपनी-अपनी सीमा के अन्दर दोनों आवश्यक हैं। इनके बिना संसार चल नहीं सकता। माता अपने वक्षस्थल से बच्चे को दूध पिलाती है. उसके त्याग में अहिंसा जरूर है, परन्तु जिस समय उस पर कोई दूसरा आक्रमण करने के लिये आता है तो वह मुकाबले पर हिंसा के लिये तैयार हो जाती है। इस प्रकार हिंसा-अहिंसा दोनों एक स्थान पर विद्यमान हैं । समस्त सृष्टि हिंसा-अहिंसा पर खड़ी है।
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