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इससे तो यह प्रतीत होता है कि माता जो आक्रमणकारी की हिंसा के लिये उतरती है, वह उचित है ।" १
इस प्रसंग पर यदि विचार किया जाये तो आक्रमणकारी के मुकाबले के लिये माता का पराक्रम प्रशंसनीय ही माना जायेगा | अन्याय वृत्ति से परराष्ट्र वाला अपने देश पर आक्रमण करे उस समय अपने आश्रितों की रक्षा के लिये संग्राम में प्रवृत्ति करना हिंसा की श्र ेणी में नहीं आता क्योंकि यदि वह आत्म रक्षा और अपने आश्रितों के संरक्षण में चुप होकर बैठ जाये तो न्यायोचित अधिकारों की दुर्दशा होगी। जान, माल, मातृ जाति का सम्मान आदि सभी संकटपूर्ण हो जायेंगे । इस प्रकार अन्त में महान धर्म का ध्वंस होगा । इसीलिये देश और धर्म में से देश की रक्षा पर जोर दिया गया है क्योंकि देश स्वतन्त्र होने पर धर्म की रक्षा स्वत: ही हो जायेगी । यही कारण है कि देश रक्षा, आत्म-रक्षा व न्याय-रक्षा के लिये जहाँ शस्त्रादि का प्रयोग किया जाये वहाँ हिंसा नहीं मानी जाती। ऐसे समय यदि तलवार न उठाई जाये तो शत्रु का उत्साह दुगुना हो जाता है और फिर एक प्रकार से अपती दुर्बलता द्वारा शत्रु को प्रोत्साहन देना भी तो हिंसा ही है। दुष्टों को यदि दंड न दिया जाये तो मे पाप कर्म में उत्साहित होकर हिंसा हो तो फैलायेंगे । यदि हम पचास सज्जनों को हिंसा से बचाने के लिये एक दुष्ट आततायी का वध करते हैं तो यह अहिंसा धर्म का पालन ही कहलायेगा क्योंकि इस कर्त्तव्य पालन द्वारा पचास सज्जनों की जान बचती है। धर्मशास्त्र भी यही फरमाते हैं कि 'आत्मरक्षार्थं हिंसा - हिंसा न भवति' जिसके कुछ प्रमाण हम यहाँ दे रहे हैं
'हे इन्द्र ! पापी, छली तथा हमें चूसने वाले को तू माया से पराजित
कर । २
१. विशाल भारत सन् ४१
२. “मायामिरिन्द्रमायिनं त्वं शुण्णमवातिरः "
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ऋग्वेद - मण्डल १. सूत्र ११,
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मंत्र ७
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