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भी सिर्फ अपने गोबर और गौ-मूत्र से प्रतिवर्ष बीस हजार रुपये तक का लाभ पहुँचा सकता है।
गाय जिसके मारने का न केवल उपयोगिता की दृष्टि से अपितु धार्मिक द्दष्टि से भी निषेध किया गया है, मानव इस तुच्छ लक्ष्मी के लालच में उसके प्राण लेने में जरा भी संकोच नहीं करता। ऐसे निर्दयी लोग तर्क देते हैं कि गाय में आत्मा नहीं, पर हम तो यही कहेंगे कि ऐसा तक देने वालों में ही आत्मा नहीं।
महाभारत के अनुशासन पर्व में गायों की महत्ता बताते हुए कहा गया है कि "गौओं का दान करने से जैसा उत्तम फल मिलता है, वैसे ही गौओं से द्रोह करने पर बहुत बड़ा कुफल भोगना पड़ता है, इसलिये गौओं को कभी कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिये।"१
"गोएँ दूध देकर सम्पूर्ण लोकों का भूख के कष्ट से उद्धार करती हैं। ये लोक में सबके लिये अन्न पैदा करती हैं। इस बात को जानकर भी जो गौओं के प्रति सौहार्द्र का भाव नहीं रखता वह पापात्मा मनुष्य नरक में पड़ता है।"२
गाय का स्वयं वध न करके कसाई के हाथ बेचने वाले यह तर्क दें कि हमने वध नहीं किया, अतः पाप के भागो नहीं, जरा विचार करें कि गाय किस प्रयोजन से कसाई को दी है ? स्वयं वध किया, कराया अथवा करते हुए का अनुमोदन किया, समान रूप से पाप के भागी बताये गये हैं। महाभारत कहता है१. प्रदान फलवत् तत्र द्रोहस्तत्र तथा फलः ।
अपचारं गवां तस्माद् वर्जयेत युधिष्ठिर। ॥ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय ७०, श्लोक ३३ गावो लोकांस्तारयन्ति क्षरन्त्यो गावश्चान्नं संजनयन्ति लोके । यस्तं जानन्न गवां हार्दमेति स वैगन्ता निरयं पापचेताः ॥ अनुशासन पर्व अध्याय ७१, श्लोक ५२
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