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महाभारत में यको' के नाम पर की जाने वाली पक्ष-हिंसा की निन्दा :
"जो जगत में सब प्राणियों को अभय की दक्षिणा देता है वह मानों समस्त यज्ञों का अनुष्ठान कर लेता है तथा उसे भी सब ओर से अभय दान प्राप्त हो जाता है । प्राणियों की हिंसा न करने से जिस धर्म की सिद्धि होती है उससे बढ़कर महान धर्म कोई नहीं है।"१ महाभारत में ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जिनमें भीष्म पितामह युधिष्ठिर को उद्बोधित कर रहे हैं। ऐसे ही एक प्रसंग में वे कहते हैं कि जो धर्म की मर्यादा से भ्रष्ट हो चुके हैं, नास्तिक है तथा जिन्हें आत्मा के विषय में संदेह एवं जिनकी कहीं प्रसिद्धि नहीं है ऐसे लोगों ने ही हिंसा का समर्थन किया है । धर्मात्मा मनु ने तो सम्पूर्ण कर्मों में अहिंसा का प्रतिपादन किया है । मनुष्य अपनी ही इच्छा से यज्ञ की बाह्य वेदी पर पशुओं का बलिदान करते हैं। “अहिंसा सर्व भतेभ्यो ज्चायसी मता" अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जिन धर्मों का विधान किया गया है उनमें अहिंसा ही सबसे बड़ी मानी गयी है । मनुष्य यूप निर्माण के उद्देश्य से जो वृक्ष काटते और यज्ञ के उद्देश्य से पशु-बलि देकर माँस खाते हैं, यदि वह व्यर्थ नहीं अपितु धर्म ही मान लिया जाये तो यह उचित नहीं क्योंकि बुद्धिमान ऐसे धर्म की प्रशंसा नहीं करते।
स्पष्ट है यज्ञ में किसी भी प्रकार का पशु-वध अशास्रीय एवं अनुचित है यह तो मांस-लोलुपी मनुष्य अपने बचाव के लिये धर्म की आड़ आगे ले आते हैं। महाभारत में शांति पर्व के २६३ वें अध्याय में वैश्य तुलाधर ने जाजलि मुनि को आत्म-यज्ञ विषयक धर्म का ही उपदेश दिया है।
आत्मा तो यज्ञ का यष्टा अर्थात् करने वाला है, तथा तपरूप अग्नि है, ज्ञान रूप घृत है. कर्म रूपी ईधन है, क्रोध, मान, माया और लोभ पशु है । सत्य बोलने रूप यूप अर्थात् यज्ञ स्तम्भ है तथा सर्वजीवों की रक्षा करनी यह १. महाभारत-शांति पर्व अध्याय २६२ श्लोक २९. ३०
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