________________
( २६ )
है । ऐसा ही उल्लेख महाभारत में भी आता है- "माँस भक्ष्यते यस्माद भक्षयिष्ये तमप्यहम् " अर्थात् आज मुझे यह खाता है तो कभी मैं भी उसे खाऊँगा ।
माँस शब्द की व्युत्पत्ति ही किसी आचार्य ने बड़े हृदयस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत की है - माँस शब्द में दो अक्षर हैं- 'माँ' और 'स' ! 'माँ' का अर्थ मुझको और 'स' का अर्थ वह होता है। दोनों अक्षरों को मिलाकर गूढ़ार्थं निकलता है कि जिसको मैं यहाँ मारकर खाता हूँ, वह मुझे भी कभी न कभी मारकर खायेगा । यही माँस का माँसत्व है । जो माँस के रस में होने वाली आशक्ति से अभिभूत होकर उसी अभीष्ट फल माँस की अभिलाषा रखते हैं तथा उसके बारम्बार गुण गाते हैं उन्हें ऐसी दुर्गति प्राप्त होती है जो कभी चिन्तन में नहीं आई और न ही जिसे वाणी द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। तृण से, काठ से अथवा पत्थर से माँस पैदा नहीं होता वह तो जीव की हत्या करने पर ही उपलब्ध होता है । जोव का वध करने के तुरन्त बाद उसके माँस में अनन्त जीवों की परम्परा पैदा होने लगती है । माँस की डली का टुकड़ा कच्चा हो या पक्का उसमें उसी जाति के असंख्य जीव निरन्तर पैदा होते रहते हैं । अतः माँस-भक्षण घोर हिंसा के कारण नरक का हेतु है । शास्त्रों में कहा गया है
" वध किया पशु-प्राणी का, काटे उसी को देह क्रकच चलाता परमाधामी, फल में नहीं संदेह"
कई लोग यह तर्क देते हैं कि माँस हमारे निमित्त से नहीं बना था, इसलिये हम दोष के भागी नहीं । विचारणीय है कि हत्यारा किसके लिये पशुओं की हिंसा करता है ? खाने वालों के लिये ही तो, यदि कोई माँस-भक्षक न हो तो कोई पशु - हिंसक भी न होगा। कहा भी गया है- “न वधको भक्षकं बिना ।" अत: यदि अभक्ष्य समझकर माँस खाना सभी छोड़ दें तो पशु-हत्या स्वतः ही बन्द हो जायेगी । न केवल वधिक और न ही केवल भक्षक बल्कि अनुमोदन कर्त्ता भी हिंसा दोष का ही भागी माना जाता है महाभारत कहता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org