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देवी यज्ञाग्नि में प्रविष्ट हो गई। मृग में पुन. अपनी आहुति देने की याचना की लेकिन ब्राह्मण ने उसे हृदय से लगाकर वहाँ से जाने के लिये कहा । मृग आठ कदम आगे जाकर फिर वापिस आया और ब्राह्मण से कहने लगा सत्य, तुम विधिपूर्वक मेरी हिंसा करो, मैं यज्ञ के वध को पाकर उत्तम गति पा लूंगा । मैंने तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की है इससे तुम अप्सराओं और गंधर्वों के विचित्र विमानों को देखो । ब्राह्मणों ने बड़ी देर तक वह रमणीय दृश्य देखा । बस फिर क्या था मन में निश्चय किया कि हिंसा करने पर मुझे स्वगं का सुख मिल सकता है। वास्तव में उस मृग के रूप में साक्षात् धर्मं थे, जो मृग का शरीर धारण करके बहुत वर्षों से वन में निवास करते थे । पशु-हिंसा यज्ञ की विधि के प्रतिकूल कर्म है । भगवान धर्म ने उस ब्राह्मण का उद्दार करने का निश्चय किया । मैं उस पशु का वध करके स्वर्गलोक प्राप्त करूँगा । यह सोकचर मृग की हिंसा करने के लिये उद्दत उस ब्राह्मण का महान तप तत्काल नष्ट हो गया इसीलिये हिंसा यज्ञ के लिये हितकर नहीं है। तत्पश्चात भगवान धर्म ने स्वयं सत्य का यज्ञ कराया फिर सत्य ने तपस्या करके अपनी पत्नी पुष्करधारिणी के मन की जैसी स्थिति थी, वैसा ही उत्तम समाधान प्राप्त किया अर्थात् उसे यह द्दढ़ विश्वास हो गया कि हिंसा से बड़ी हानि प्राप्त होती है, अहिंसा ही परम कल्याण का साधन है । १
इसीलिये कहा है " अहिंसा सकलो धर्मों" अर्थात् अहिंसा ही सम्पूर्ण धर्म है, हिंसा अधर्म है और अधर्म अहितकर होता है। दूसरे जीवों को दुःख पहुँचाकर धर्म करना अथवा सुख की इच्छा करना यह कैसे हो सकता है ? " सण्वे जीवावि इच्छंति जीविउं, न मरिज्जउं" अर्थात् सब जीव जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता । जो जिस योनि में है उसे उसी योनि में सुख मिलता है । एक कीड़ा जो गाड़ी की लीक में बड़ी तेजी से भागा जा रहा है, देखकर व्यास जी पूछते हैं हे कीट, किस भय से और कहाँ भागे जा रहे हो ? प्रत्युत्तर में कीट कहता है- महामते, इस बैलगाड़ी की घर्घराहट सुनकर
१. शांति पर्व अध्याय २७२
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