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वास्तव में जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है वह सास्र कथनों का भी अपने स्वार्थानुकूल अर्थ निकाल लेते हैं । मांस भक्ष्य या अभक्ष्य ? मनु के इस एक ही श्लोक का अर्थ दोनों पक्षों ने अपने-अपने हित में लिया। यह तो वही बात हुई जैसा कि हम एक वाक्य कहें 'चोरी करना नहीं, करोगे तो दण्ड मिलेगा। इस वाक्य में यदि कहीं कोमा (') न लगाया जाये तो चोर इसका अर्थ लेगा कि चोरी करना, यदि नहीं करोगे तो दण्ड मिलेगा जबकि साधक इसका अर्थ इस प्रयोग में लेगा कि चोरो करना नहीं यदि करोगे तो दण्ड मिलेगा। कैसा परिहास है कि उचित-अनुचित में अपने विवेक का प्रयोग न करके मानव केवल स्वार्थ देखता है ।
विचारणीय है कि यदि मनु मांस भक्षण में दोष न मानते तो सर्व प्रकार के मांस का निषेध कैसे करते ? जैसा कि पिछले पृष्ठों में कहा गया है अत: मनुस्मृति में माँस खाने की अनुमति नहीं है मनु ने तो यहाँ तक कहा है कि यदि पशु-भक्षण की इच्छा हो तो धृत का व चून का पशु बनाकर भक्षण कर लें, परन्तु पशु को वृथा मारने की इच्छा न करनी चाहिये। यहाँ एक बात हमारी समझ से परे है कि जहाँ एक ओर मनु स्मृति अध्याय ५ के ३७ वें श्लोक में पशु को मारने का निषेध है वहीं ३९ वें श्लोक में यज्ञ के लिये माँस भक्षण को दैव विधी कहकर उचित ठहराया गया है कि — ब्रह्माजी ने आप ही यज्ञ के लिये और सब यज्ञों की सिद्धि के लिये पशुओं को बनाया है इसलिए यज्ञ में पशु-वध की हिंसा नहीं होती।"
इसी प्रकार याज्ञवल्क्य स्मृति: के सातवें प्रकरण में जहाँ भक्ष्याभक्ष्य का वर्णन है वहां १७१ - श्लोक में यज्ञ में आहूत पशु के माँस का निषेध किया गया है वहीं १८० में श्लोक में यज्ञ में पशुबलि को उचित ठहराते हुए कहा गया है कि जो अवधि अथवा देवता या यज्ञ के लिये नहीं अपितु स्वयं के लिये पशु का वध करता है वह उतने दिन तक घोर नरक में वास करता है जितने रोएं उस पशु के शरीर में रहे हों।
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