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( १७ ) मनु ने ५ों अध्याय के ३२० श्लोक में कहा है मोल लेकर, स्वयं उत्पन्न करके अथवा किसी ने भेट दिया हो ऐसा माँस देवता तथा पितरों को समपण करके जो मनुष्य खाता है वह दोष का भागी नहीं होता।
यह तो सारे कथन मिथ्याद्दष्टियों के हैं । हमारी दृष्टि में तो जान-बूझकर किसी जीव को मारना हिंसा ही है उसे कैसे भी उचित नहीं ठहराया जा सकता । वसिष्ठ स्मृतिकार भी जो यज्ञ में किये जाने वाले प्राणि-वध को वध नहीं मानते हम उनके मत से भी सहमत नहीं हो सकते। यदि प्राणि-वध स्वरूप से ही अस्वयं है तो यज्ञमें करने पर भी अस्वयं ही रहेगा और उसमें हिंसाजन्य दोष अनिवार्य है क्योंकि वैदिक मंत्रों से आमंत्रित करने पर भी बध्य पशु को वध के समय दुःख तो होता ही है इसमें कोई संशय नहीं। और पर प्राणों को दुख देना यह दोष है इसे स्वीकार करने से भी कोई इंकार नहीं कर सकता।
दयाधर्मी आस्तिकमत वालों को तो मांस देखना भी योग्य नहीं तो फिर देवता, पितरों की पूजा मांस से करनी यह भावना तो धर्मी कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकता । अतः देवताओं को माँस चड़ाना, यह बुद्धिमानों का काम नहीं क्योंकि देवता तो बड़े पुण्यवान होते हैं जब वे कवल का आहार ही नहीं करते तो फिर जुगुप्सनीय मांस क्यों खायेंगे। अत: जो मूढ़मति कहते हैं कि देवता मांस खाते हैं हमारी दृष्टि में तो वे महा अज्ञानी है। इसके अलावा जो पितर हैं वे तो अपने-अपने पुण्य-पाप के प्रभाव से सद्गति-दुर्गति को प्राप्त हो चुके । हर व्यक्ति अपने किये कर्मों का भोक्ता स्वयं ही है। पुत्र के किये दुष्कर्मों अथवा सुकर्मों का फल पिता को नहीं मिलता क्योंकि आम के सींचने से केले में फल नहीं लगेगा।
___अतिथि की भक्ति के लिये जो मांस देने को कहते हैं वह नरक का हेतू और महा अधर्म के सिवाय कुछ नहीं अब यदि कोई तर्क दे कि जो बात श्रुति, स्मृति में आई है वो माननी चाहिये, यह भी उचित नहीं क्योंकि जो
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