________________
( १४ )
प्रकार किया है- "जो मनुष्य जिसका माँस खाता है वह उसके माँस का खाने वाला कहाता है परन्तु मत्स्य का भक्षक तो सर्वभक्षी है अतः मत्स्य भक्षण का त्याग करना चाहिये ।" १
मनु का कथन सर्वथा सत्य है । एक मनुष्य जिसका भक्षण करता है वह उसी का भक्षण कहलाता है किन्तु मत्स्य खाने वाला सर्वभक्षो ही है, इसलिये कि मत्स्य सब प्रकार के बुरे पदार्थों को खाता है। पानी में किसी का मुर्दा पड़ा है तो उसे भी खायेगा और गटरों का पानी जिसमें विष्ठा और पेशाब आदि भी मिला रहता है, नदियों में जाते ही मछलियाँ उन्हें अपने पेट में ले लेती है । अब यदि मछली खाने वाले को सर्वभक्षी कहा जाये तो गलत भी क्या है । इसीलिये शास्त्रकारों ने कहा है • मात्स्यमांसे सदा लुब्धो नरो निषाद उच्चते” अर्थात मत्स्य और माँस में लुब्ध मनुष्य- मनुष्य नहीं
1
परन्तु निषाद है । मनु न केवल माँस भक्षक को अपितु उससे सम्बंधित सभी को घातक मानते हैं "सम्मति देने वाला, काटने वाला, मारने वाला, मोल लेने और बेचने वाला, पकाने वाला, लाने वाला और खाने वाला में सब घातक होते हैं ।"२ अत: अपने सुख, जिव्हेन्द्रिय की लोलुपता के लिये बेचारे मूक पशुओं का घात नहीं करना चाहिये ।
-
क्या मनुस्मृति में माँस खाने की अनुमति है :- ऐसे माँसाहारी भी हैं जो अपने स्वाद की तृप्ति के लिये धर्मशास्त्रों का विपरित अर्थ निकालते हैं और अपने प्रमाण के लिये मनुस्मृति के एक श्लोक का अर्थ इस प्रकार करते
"माँस भक्षण में दोष नहीं है मद्य में नहीं है और न ही मैथुन में क्योंकि यह मनुष्यों की प्रवृत्ति है अगर उससे निवृत्ति अर्थात त्याग हो तो वह
१. यो यस्य माँस मन्शति स तन्मांसाद उच्यते ।
मत्यादः सर्वमाँसा दस्तस्मान्मत्स्यान्विवर्जयेता ।। १५ ।। अध्याय ५
२. अनुमंता विशसिता निहन्तात्रय विक्रयी ।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ।। ५१ ।। अध्याय ५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org